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Friday, August 12, 2011

कामसूत्र में कामुकता के नि‍यमों का खेल



आनंद में जब अविश्वास पैदा हो जाता है तो उसका सीधा असर शरीर और आत्मा पर पड़ताहै।साथ ही वैवाहिक जीवन में कामुक


सुख और वैवाहिक दायित्वों पर भी असर पड़ता है।कामसूत्र में कामुकता संबंधी चिन्ताओं और समस्याओं पर उतना ध्यान नहीं दिया गयाजितना कामुक आनंद प्राप्त करने पर। कामुक आनंद से संबंधित जो तत्व और संबंध हैं ,वेही कामसूत्र के केन्द्र में हैं।इसमें कामुकता के पीछे निहित मंशा

और कामुक रूपों के रूपायनपर मुख्य रूप से ध्यान दिया गया है। इसमें कामुकता के कुछ रूपों की भी चर्चा है जोसामाजिक तौर पर अस्वीकृत हैं। जिनकी राजनीतिक व्याख्या करना पसंद करें। कामसूत्र मेंमुख्य जोर इस बात पर है कि वैवाहिक जीवन कैसे बचाएं, परिवार को कैसे बचाएं।साथ हीअनेक ऐसे स्थल भी हैं जिनमें अवैध संबंधों की निंदा की गई है।

कामसूत्र में कामुक आनंद और स्वाधीनता को संस्था और नियमों के तहत रखकर देखा गया है। संस्था और नियमरहित कामुकता की तीखी आलोचना की गई है। इसके कारण कामसूत्र के कामुकता विमर्श का आने वाले समाज और समकालीन समाज के नैतिक मानकों पर गहरा असर पड़ा। कामुक इच्छाओं को अभिव्यक्ति देते समय उसे नैतिक मानदण्डों से जोड़ा गया , प्रत्यक्षत: सामाजिक संस्थाओं के हस्तक्षेप से जोडा गया। कामुकता के मानकों के उल्लंघन का अर्थ था सामाजिक हस्तक्षेप को आमंत्रित करना। इसका परिणाम यह निकला कि जो लोग संस्था और नियमों के दायरे के बाहर जाकर अपनी कामुक इच्छाओं को अभिव्यक्त करना चाहते थे उन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता था। अन्यथा सभी से यह उम्मीद की गई कि वे कामुकता के मानकों का पालन करेंगे।

एक अर्से के बाद विवाह के आठ रूपों में पहले चार रूपों का बाद के चार रूपों के साथ सीधा अन्तर्विरोध पैदा हो गया। पहले चार विवाह प्रकार वैध मान लिए गए और बाद के चार को समाज ने अपनी स्वीकृति नहीं दी। कामसूत्र ने कामुकता को निजता ,आत्मसम्मान और सामाजिक हैसियत के साथ जोड़ दिया । कामसूत्र के आने पहले व्यक्ति का कामुक संबंध सिर्फ एक ही व्यक्ति तक ही सीमित नहीं था, सिर्फ विवाहिता के साथ ही सीमित नहीं था। उस समय व्यक्ति अपनी निजता के प्रति ज्यादा सचेत था। निजी अनुभूति ,निजी भूमिकाओं और निजी अस्तित्व के सवालों के प्रति ज्यादा सजग था। फलत:साधारण लोगों का फोकस अपने निजी जीवन पर ज्यादा था, इससे तत्कालीन सामाजिक,राजनीतिक सत्ता कमजोर हो रही थी। नैतिकता का आधार व्यक्तिगत था। व्यक्ति की स्वयं के प्रति जबावदेही थी। वह अपनी निजी जिन्दगी के परे जाकर देखता ही नहीं था। यह आदिम व्यक्तिवाद का एक रूप था।

प्रसि‍द्ध फ्रांसीसी वि‍द्वान मि‍शेल फूको के अनुसार आदिम व्यक्तिवाद व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यवहार, निजी जिन्दगी तक सीमित था। वह अन्य से कटी हुई जिन्दगी जीता था। वह ऐसे यथार्थ में कैद था जो परंपरागत बंधनों से मुक्त था। उसके लिए व्यक्तिगत मूल्य परम सत्य थे। उसके निजी जीवन का सकारात्मक मूल्यांकन किया गया। उसके पारिवारिक संबंधों को महत्ता दी गयी।व्यक्ति की निजी सघन अनुभूतियों को महत्ता दी गयी। जिसके कारण व्यक्ति की भूमिका,व्यक्ति के ज्ञान, व्यक्ति के रूपांतरण, दुरूस्तीकरण,पवित्रताऔर मुक्ति को महत्व दिया गया। ये सारे तत्व अन्तस्संबंधित हैं। यही वजह है कि कालान्तर में व्यक्तिवाद ने निजी जीवन के मूल्यों को सघन रूप में अभिव्यक्ति दी। यह जरूरी नहीं कि सभी सामाजिक समूहों में व्यक्तिवाद की सक्रिय भूमिका हो। विभिन्न सामाजिक समूहों में व्यक्तिवाद अलग-अलग रूपों में व्यक्त हुआ । मसलन् अभिजात्यवर्ग में व्यक्तिगत मूल्यों और निजता के प्रति आक्रामक आकर्षण होता है। फलत: वह अपने से इतर समूहों को आकर्षित नहीं कर पाता। अनेक ऐसे सामाजिक समूह हैं जिनके लिए निजी जिन्दगी बेहद कीमती है।वे उसको सजग तरीकों से संरक्षित और संवर्ध्दित करने का प्रयास करते हैं। किन्तु ऐसे समाजों में व्यक्तिवाद बेहद कमजोर होता है। भारत के समाज का बहुत बड़ा हिस्सा लंबे समय से ऐसा ही रहा है। यहां आत्मविकास और निज की देखभाल पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। जो लोग आत्मविकास पर जोर देते थे वे निजी देखभाल पर ध्यान नहीं देते थे। जो लोग निजी देखभाल पर ध्यान देते थे उनके यहां आत्मविकास की धारणा का विकास ही नहीं हुआ। समग्रता में देखें तो आत्मविकास और निजी देखभाल को हमारे समाज ने लंबे समय से उपेक्षित रखा ।

सेक्स या काम स्वाभाविक होता है । स्वाभाविकता के आधार पर ही लिंगभेद होता है। फूको ने लिखा आधुनिक कामुकता ने हमें यह बताया कि ''सेक्स व्यक्ति सत्य है।'' इस तथ्य की पहचान कामसूत्र में सबसे पहले हुई। यह बात दीगर है कि फूको ने कामसूत्र देखा नहीं था। सेक्स सिर्फ प्रजनन के अंग तक सीमित नहीं है अपितु शारीरिक संरचना या शारीरिक अंगों तक उसकी गहरी जड़ें हैं। कामसूत्र में लिंग को काम (सेक्स) और वर्ण के साथ भी जोड़ा गया। एक ही वर्ण की लड़की और लड़के के विवाह को विवाह की पहली चार पध्दतियों में सम्मानजनक स्थान दिया गया । जबकि बाकी चार विवाह पध्दतियों में वर्ण को सेक्स के साथ जोड़कर पेश नहीं किया गया। स्त्री पुरूष भेद और साम्य का आधार सेक्स को बनाया गया। कामुकता को सेक्स और सेक्स को स्त्री से जोड़ा गया।

कामुकता,काम और स्त्री ये तीनों अन्तर्गृथित हैं। इसका अर्थ यह भी है किकामुकता ,सेक्स और सामाजिक व्यवस्था के अन्तस्सबंध को भी हमें सामने रखना होगा।तमाम आधुनिक समाजशास्त्री यह मानते हैं कि कामुकता और कामुक भिन्नता ये दोनोंआधुनिक फिनोमिना हैं। किन्तु भारतीय संदर्भ में ये आधुनिक नहीं प्राचीन संवृत्ति हैं। इनकाजिक्र कामसूत्र में है।सुश्रुत की 'चरक संहिता' में है। कामुकता और शरीर चर्चा और प्रसाधनचर्चा पर मध्यकाल में जितना समृध्द विमर्श भारत में तैयार हुआ है उतना पश्चिमी चिन्तनमें नहीं हुआ।

कामसूत्र में विवाह हेतु ऐसी लड़की के चयन को श्रेष्ठ माना गया है जो अभिजात्य गुणों से सम्पन्न हो। जिसके माता-पिता हों, प्रतिष्ठित खानदान हो, सदाचारी मित्रगण जिसे देखकर प्रशंसा करें। जिसका सुंदर नाम हो। इसके अलावा अवगुणी लड़की के बारे में भी लिखा है।यह भी लिखा कि जिस विवाह से पति-पत्नी को समान आनन्द की अनुभूति हो दोनों एक-दूसरे के पूरक और शोभावर्ध्दक हों। पति अपनी पत्नी से तब ही संभोग का अधिकारी बताया गया है जब वह अपनी पत्नी का दिल जीत ले।उसके साथ जबर्दस्ती न करे। सुहागरात की पहली तीन रात को पत्नी को कामकला की शिक्षा दे। ये सारे उपाय ब्राह्म,अग्नि,दैव और प्राजापत्य विवाह पध्दतियों के अनुसार शादी करने वालों के लिए सुझाए गए है।

शादी का फैसला करते समय देश,पात्र, वर्ण और हैसियत को महत्व दिया गया है। जो लोग इन तत्वों का ख्याल करके शादी करते हैं उनका वैवाहिक जीवन सफल होता है। कामसूत्रकार ने असल में शादी के सवाल को परिवार और वर्ण के मातहत कर दिया है। परिवार और वर्ण के मातहत रखने का एक ही लक्ष्य है उपयुक्त कन्या की प्राप्ति। इसका कोई अन्य अर्थ नहीं है। शादी के बाद पत्नी अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए क्या-क्या करे। पति क्या क्या करे। इन बातों की ओर ध्यान दिया गया है। इसमें बुनियादी तौर पर पति और पत्नी दोनों को अपनी अवस्था पर मास्टरी हासिल करने के सुझाव दिए गए हैं। अच्छी पत्नी और अच्छे पति के गुण हासिल करने पर जोर है। जिससे वे सम्मानजनक जीवन यापन कर सकें।

शादी के सवाल पर निरंतर तरह-तरह से विमर्श चलता रहा है ,इसका अर्थ यह है कि शादी के बाद हमेशा पति-पत्नी एक नए जीवन की शुरूआत करते हैं और नए जीवन की प्रक्रिया में जो समस्याएं आती हैं उनके समाधान खोजते जाते हैं। कामसूत्र में शादी का जिस तरह वर्णन मिलता है उसके अनुसार शादी एक कला है। जिसमें मानवीय रिश्तों में महारत हासिल करनी पड़ती है। शादी का आनंद के साथ संबंध है। आनंद हासिल करने के लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरूष अपने दायित्व का निर्वाह करें।स्वयं के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करें।एक-दूसरे के प्रति सम्मान व्यक्त करें। प्यार व्यक्त करें।दोनों के बीच बेहतर शारीरिक संबंध हो । सेक्स करते हुए दोनों आनंदित हों। एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और संतुलित समझ हो ।

साथ रहने की कला का संबंध संवाद की कला से है। संवाद जितना बेहतर होगा,संबंध भी उतना ही अच्छा होगा। इस प्रसंग में सबसे चौंकाने वाली बात यह है शादी के बाद पत्नी के लिए बहुत सीमित सामाजिक भूमिका सौंपी गई है।स्त्री का कार्य है बच्चे पैदा करना,क्योंकि शादी का प्रधान लक्ष्य था संतानोत्पत्ति। एक साथ रहना,घर संभालना ,पति और उसके परिवार की सेवा करना। पति-पत्नी के बीच यदि शारीरिक संबंध न रहे, या वे एक-दूसरे के साथ सेक्स न करें तो यह संबंध टूट जाता था। इसके कारण ही दूसरी पत्नी की परंपरा शुरू हुई ,अथवा अन्य औरतों की ओर पुरूष मुखातिब हुआ। इसका अर्थ यह है कि पति-पत्नी के बीच का रिश्ता बहुत ही सीमित आधार पर टिका था। इसका अर्थ यह भी है कि पति को शारीरिक आनंद सिर्फ अपनी पत्नी से ही प्राप्त करना होता था। पत्नी के अलावा किसी और से शारीरिक आनंद प्राप्त करने को अवैध और असहनीय माना गया। परस्त्रीगमन या परपुरूषगमन को अवैध माना गया । परस्त्री या परपुरूषगमन का राजा और उससे जुड़े तंत्र में वैध रिवाज था।

( लेखक-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधासिंह )

Tuesday, July 19, 2011

मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं आदिवासी समुदाय.


निलेश झालटे (स्वतंत्र पत्रकार) ०९८२२७२१२९२




सन १९९५ की बात हैं महाराष्ट्र की विधान सभा, नागपुर में जब गोवारी जाति के गांव में बसने वाले लोग, कसबों में रहने वाले लोग, जिनकी कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी, वे लाखों की संख्या में एकत्रित होकर आ गए और विधान सभा का घेराव कर लिया. उस समय की महाराष्ट्र सरकार ने उनकी बात तो नहीं मानी, बल्कि उनके ऊपर गोलियां चलवाईं और बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों को मारा गया. उस समय हुई गोलीबारी में करीब १०२ गोवारी जाति के लोग आन्दोलन में शहीद हुए. वहां राम दास गोवारी नाम से मारे गए गोवारी जाति के एक बड़े नेता का एक बहुत बड़ा स्टैच्यू भी बना हुआ है. शहीद स्तम्भ भी वहां जनता ने बनाया, लेकिन इस जाति के लोगों को आज तक न्याय नहीं मिला. यह आदिवासी की एक जमाती का उदाहरण हैं और ऐसे ना जाने कितने जाति-जमाती के आदिवासी विदर्भ में पाए जाते हैं यह तमाम आदिवासी अपनी संस्कृति की साख बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ना जाने कितने भूमिहीन आदिवासी इस क्षेत्र में हैं जो बंधुआ मजदूरी से अपना जीवनयापन करते हैं ये कितनी दुर्दैवी बात हैं की अपने हक के इलाके में भी इन लोगों को इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा हैं.

लोग कहते हैं तुम्हें दर्द कहां होता हैं, एक जगह हो तो बता दूं कि यहां होता हैंकवि दुष्यंत की यह पंक्तियां शत-प्रतिशत आदिवासियों पर खरी बैठती हैं बाबा साहब अम्बेडकर ने कभी कहा था कि गूंगे को जंजीरों से बांधकर भी मारोगे तो चीख या कराह सुनाई नहीं देगी तब चाहकर भी उसे बचाने का प्रयास कोई कैसे करेगा? आदिवासी समाज पर जितने भी लेख या साहित्य वरिष्ठ चिंतकों प्रबुद्ध साहित्यकारों ने लिखे हैं उसका अंतिम निष्कर्ष भीगूंगो की चीखको ही प्रदर्शित करता हैं.

आदिवासी समाज पर इमानदारी से काम करनेवाले संगठनों चिंतकों में भी आदिवासियों की अभिव्यक्ति का अभाव पाया हैं. पुरातन काल से लेकर अब तक का कालखंड आदिवासी संघर्षो और विद्रोहों से भरा पड़ा हैं. पुराणों से लेकर आज के नवीनतम अखबारों या किसी भी प्रकार की मीडिया में उल्लेख मिलता हैं कि आदिवासी सदैव अपनी धर्म, संस्कृति, और जल-जंगल-जमीन के लिए निरंतर संघर्षरत रहें हैं. बहरहाल जब हम महाराष्ट्र के आदिवासियों की बात करते हैं क्योंकि विगत जनगणना के अनुसार इस प्रदेश में ७३.१८ लाख आदिवासी हैं, इस प्रकार से यह मध्यप्रदेश के बाद भारत का दूसरा आदिवासी बाहुल्य राज्य हैं. जिसमें प्रमुखता से गोंड, भील, महादेव कोली, वर्ली, कोकणा, ठाकुर, हल्बा, अंध, कोली मल्हार, कटकरी, कोलाम, कोरकू, गमित आदि आदिवासी जातियों का वास्तव्य हैं.

रामचंद्र गुहा कहते हैं कि अगर इतिहास पर एक नजर डाले तो गत एक सदी से भी ज्यादा समय से मध्य भारत तीन प्रकार की त्रासदी का शिकार हो रहा हैं. एक बात इन सभी त्रासदियों में समान रहीं हैं कि हर बार आदिवासी इसका शिकार होते आ रहें हैं. पहली त्रासदी की शुरुवात अंग्रेजों द्वारा उनके जंगलों पर कब्ज़ा किये जाने से हुई और जो उन्हें दबाए-कुचले जाने के रूप में जारी रहीं. दूसरी त्रासदी की शुरुवात होती हैं देश स्वतंत्रता के बाद जब भारत में चुनावी लोकतंत्र का आगमन होता हैं. एक तरफ सम्पूर्ण देशवासी स्वतंत्रता की खुशी में डूबे होते हैं वहीँ दूसरी और जहां एक बहुत छोटा, शक्तिहीन अल्पसंख्यक तबका होने के नाते उस सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज नहीं पहुँच सकी और हितों की रक्षा के लिए जो भी अर्थपूर्ण प्रावधान किए गए थे, वे सफल नहीं हो सके. आदिवासियों के जीवन की तीसरी त्रासदी माओवादियों के आगमन के साथ शुरू होती हैं, जिनके हथियारबंद संघर्ष और तात्कालिक हिंसा के रास्ते ने आदिवासियों की समस्या सुलझाने की कोई उम्मीद नही छोड़ी.

शायद इसीलिए उस हाशिए पर गए तबके पर (आदिवासियों), उनकी समस्याओं, वास्तविकता, का जायजा लेना मीडिया के लिए जरुरी हैं क्योंकी मीडिया आज मुख्य धारा के समाज का ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्त्व करता दिखाई देता हैं . आज भी आदिवासी अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाए हुए हैं. अपनी संस्कृति को बचाने के लिए वह हमेशा से ही संघर्षरत मिलता हैं. आदिवासी भारत की एक संस्कृति को हमेशा से ही बचाते या चलाते आ रहें हैं. देश में किसी महत्वपूर्ण समारोहों में आदिवासीयों के नृत्य एवं नुक्कडों को प्रस्तुत किया जाता है उसका आनंद लिया जाता हैं लेकिन जब उनके आस्तिव के बारे में चर्चा होती हैं तब सब शांत हो जाते हैं अगर उनको या उनके मुद्दोंको दुर्लक्षित किया जायेगा तो निश्चित पूरी आदिवासी संस्कृति नष्ट होने का खतरा हो सकता हैं.