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Tuesday, July 19, 2011

मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं आदिवासी समुदाय.


निलेश झालटे (स्वतंत्र पत्रकार) ०९८२२७२१२९२




सन १९९५ की बात हैं महाराष्ट्र की विधान सभा, नागपुर में जब गोवारी जाति के गांव में बसने वाले लोग, कसबों में रहने वाले लोग, जिनकी कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी, वे लाखों की संख्या में एकत्रित होकर आ गए और विधान सभा का घेराव कर लिया. उस समय की महाराष्ट्र सरकार ने उनकी बात तो नहीं मानी, बल्कि उनके ऊपर गोलियां चलवाईं और बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों को मारा गया. उस समय हुई गोलीबारी में करीब १०२ गोवारी जाति के लोग आन्दोलन में शहीद हुए. वहां राम दास गोवारी नाम से मारे गए गोवारी जाति के एक बड़े नेता का एक बहुत बड़ा स्टैच्यू भी बना हुआ है. शहीद स्तम्भ भी वहां जनता ने बनाया, लेकिन इस जाति के लोगों को आज तक न्याय नहीं मिला. यह आदिवासी की एक जमाती का उदाहरण हैं और ऐसे ना जाने कितने जाति-जमाती के आदिवासी विदर्भ में पाए जाते हैं यह तमाम आदिवासी अपनी संस्कृति की साख बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ना जाने कितने भूमिहीन आदिवासी इस क्षेत्र में हैं जो बंधुआ मजदूरी से अपना जीवनयापन करते हैं ये कितनी दुर्दैवी बात हैं की अपने हक के इलाके में भी इन लोगों को इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा हैं.

लोग कहते हैं तुम्हें दर्द कहां होता हैं, एक जगह हो तो बता दूं कि यहां होता हैंकवि दुष्यंत की यह पंक्तियां शत-प्रतिशत आदिवासियों पर खरी बैठती हैं बाबा साहब अम्बेडकर ने कभी कहा था कि गूंगे को जंजीरों से बांधकर भी मारोगे तो चीख या कराह सुनाई नहीं देगी तब चाहकर भी उसे बचाने का प्रयास कोई कैसे करेगा? आदिवासी समाज पर जितने भी लेख या साहित्य वरिष्ठ चिंतकों प्रबुद्ध साहित्यकारों ने लिखे हैं उसका अंतिम निष्कर्ष भीगूंगो की चीखको ही प्रदर्शित करता हैं.

आदिवासी समाज पर इमानदारी से काम करनेवाले संगठनों चिंतकों में भी आदिवासियों की अभिव्यक्ति का अभाव पाया हैं. पुरातन काल से लेकर अब तक का कालखंड आदिवासी संघर्षो और विद्रोहों से भरा पड़ा हैं. पुराणों से लेकर आज के नवीनतम अखबारों या किसी भी प्रकार की मीडिया में उल्लेख मिलता हैं कि आदिवासी सदैव अपनी धर्म, संस्कृति, और जल-जंगल-जमीन के लिए निरंतर संघर्षरत रहें हैं. बहरहाल जब हम महाराष्ट्र के आदिवासियों की बात करते हैं क्योंकि विगत जनगणना के अनुसार इस प्रदेश में ७३.१८ लाख आदिवासी हैं, इस प्रकार से यह मध्यप्रदेश के बाद भारत का दूसरा आदिवासी बाहुल्य राज्य हैं. जिसमें प्रमुखता से गोंड, भील, महादेव कोली, वर्ली, कोकणा, ठाकुर, हल्बा, अंध, कोली मल्हार, कटकरी, कोलाम, कोरकू, गमित आदि आदिवासी जातियों का वास्तव्य हैं.

रामचंद्र गुहा कहते हैं कि अगर इतिहास पर एक नजर डाले तो गत एक सदी से भी ज्यादा समय से मध्य भारत तीन प्रकार की त्रासदी का शिकार हो रहा हैं. एक बात इन सभी त्रासदियों में समान रहीं हैं कि हर बार आदिवासी इसका शिकार होते आ रहें हैं. पहली त्रासदी की शुरुवात अंग्रेजों द्वारा उनके जंगलों पर कब्ज़ा किये जाने से हुई और जो उन्हें दबाए-कुचले जाने के रूप में जारी रहीं. दूसरी त्रासदी की शुरुवात होती हैं देश स्वतंत्रता के बाद जब भारत में चुनावी लोकतंत्र का आगमन होता हैं. एक तरफ सम्पूर्ण देशवासी स्वतंत्रता की खुशी में डूबे होते हैं वहीँ दूसरी और जहां एक बहुत छोटा, शक्तिहीन अल्पसंख्यक तबका होने के नाते उस सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज नहीं पहुँच सकी और हितों की रक्षा के लिए जो भी अर्थपूर्ण प्रावधान किए गए थे, वे सफल नहीं हो सके. आदिवासियों के जीवन की तीसरी त्रासदी माओवादियों के आगमन के साथ शुरू होती हैं, जिनके हथियारबंद संघर्ष और तात्कालिक हिंसा के रास्ते ने आदिवासियों की समस्या सुलझाने की कोई उम्मीद नही छोड़ी.

शायद इसीलिए उस हाशिए पर गए तबके पर (आदिवासियों), उनकी समस्याओं, वास्तविकता, का जायजा लेना मीडिया के लिए जरुरी हैं क्योंकी मीडिया आज मुख्य धारा के समाज का ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्त्व करता दिखाई देता हैं . आज भी आदिवासी अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाए हुए हैं. अपनी संस्कृति को बचाने के लिए वह हमेशा से ही संघर्षरत मिलता हैं. आदिवासी भारत की एक संस्कृति को हमेशा से ही बचाते या चलाते आ रहें हैं. देश में किसी महत्वपूर्ण समारोहों में आदिवासीयों के नृत्य एवं नुक्कडों को प्रस्तुत किया जाता है उसका आनंद लिया जाता हैं लेकिन जब उनके आस्तिव के बारे में चर्चा होती हैं तब सब शांत हो जाते हैं अगर उनको या उनके मुद्दोंको दुर्लक्षित किया जायेगा तो निश्चित पूरी आदिवासी संस्कृति नष्ट होने का खतरा हो सकता हैं.

...और आनंदवन की साधना चली गयी.


निलेश झालटे..

स्वतंत्र पत्रकार









'आनंदवन' के संस्थापक बाबा आमटे की पत्नी साधना आमटे के निधन से 'आनंदवन' 9 जुलाई को अनाथ हो गया. करीब 5 हजार लोगों के ऊपर से 'मातृत्व का आंचल' साधना आमटे के निधन से छिन गया है. बाबा आमटे के साथ सन 1946 में विवाहबद्ध हुई इंदु गुलशास्त्री कालांतर में पति के साथ मिल कर 'आनंदवन' को मातृत्व से सींचती रहीं. शायद इसी का परिणाम था कि आनंदवन एक पौधे से वटवृक्ष में तब्दील हो सका. जब कभी बाबा आमटे किसी उलझन में फंसे, उसका समाधान भी 'साधनाताई' ने ही सुझाया. बाबा आमटे का निधन 9 फरवरी 2008 को हुआ था. तब से लेकर साधना ताई ने जिस साधना से आनंदवन को संजोये रकह था वह वाकई सराहनीय था.
बताया जाता है कि तत्कालीन समय में महारोगियों को लेकर समाज में कई कुंठाएं थीं, लेकिन बाबा आमटे महारोगियों की सेवा करना चाहते थे. इस दौरान उन्होंने अपने मन की बात साधना आमटे को बताई, जिसके बाद इन्होने ने उनसे कहा था 'आप अपने दिल की बात सुनें. मुझे आपके साथ चलने में ही खुशी महसूस होगी'. इसके बाद बाबा की राह आसान हो गई. उसके बाद ही जून 1951 में बाबा आमटे ने पत्नी साधना आमटे, दो छोटे-छोटे पुत्रों विकास तथा प्रकाश और एक गाय, कुत्ता और 14 रु. लेकर आनंदवन की नींव रखी, जो आज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है. इसके पीछे बाबा आमटे की मेहनत तथा लगन और कुछ करने की इच्छा थी तो साधना आमटे का समर्पण और सहयोग था
.

मेरे मरने के बाद कहीं अन्यत्र अंत्येष्टि करने के बजाय मुझे वहीं तथा उसी जगह समाधि दी जाए जिस जगह बाबा आमटे चिर निद्रा में लीन हैं.' यह इच्छा साधना आमटे ने जीवित रहते बाबा आमटे के सामने उस समय व्यक्त की थी जब बाबा आमटे नर्मदा बचाओ आंदोलन में भाग लेकर आनंदवन लौटे थे. पति की समाधि खोदकर उसी में समाधि दी गई .

सनद रहे कि रीति-रिवाजों के अनुसार किसी व्यक्ति का निधन होने पर उसे समाधि देने के बाद पुन: खोदा नहीं जाता. अगर किसी परिजन की इच्छा हो तो उसकी समाधि के समीप या उस परिसर में समाधि अवश्य दी जाती है लेकिन बाबा आमटे की पत्नी साधना ताई की इच्छा के अनुरूप बाबा की समाधि पुन: खोद कर उसी में उन्हें समाधि दी गई हैं. हालांकि यह बात साधनाताई के जीवित रहते सामने आती तो वे इसका कारण अवश्य बतातीं लेकिन उनकी इस अनोखी तथा परंपरा के विपरीत व्यक्त की गई इच्छा के पीछे क्या राज है, इसका खुलासा कभी नहीं हो सकेगा.
साधनाताई ने एक और इच्छा व्यक्त की थी कि मृत्यु के बाद उन्हें वही साड़ी पहनाई जाए जो साड़ी उन्होंने अपने बेटे प्रकाश आमटे के विवाह समारोह में पहनी थी. साधनाताई ने अपनी मृत्यु के बाद पहनाई जाने वाली साड़ी पहले ही अलग निकाल कर रख दी थी. इसके बारे में उन्होंने अपने परिजनों को भी बताया था. उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें उसी साड़ी में अंतिम विदाई दी गई.

बाबा आमटे को हर कदम पर साथ देते हुए उन्हें अखंड रूप से ऊर्जा प्रदान करने वाला नाम था साधना आमटे. साधनाताई का जीवन पत्नी, मां समेत संवेदनशील प्रेरणाओं के स्नेत की यशस्वी कथा था. साधनाताई के हिस्से में सहनशीलता और प्रकाशमान न रहने की भूमिका आई और उन्होंने इसका दशकों तक सफलता के साथ निर्वहन किया. उनके सहनशील व्यक्त्वि और साथ के वजह से ही आनंदवन, हेमलकसा, भामरागड़, अशोकवन, नागेपल्ली और कासरावद जैसी परियोजनाएं साकार हो पाईं.

जब साधना ताई का निधन हुआ तब वाकई आनंदवन फिर एक बार अनाथ हो गया हैं .आनंदवन की यह साधना चले जाने से वाकई आनंदवन दुःख की गर्त में खोया हैं.

Monday, July 11, 2011

मला भेटलेल्या साधनाताई .....


पराग अ. मगर

स्वतंत्र पत्रकार.

Paragmagar8@gmail.com

Mo. 8055289712,

तो दिवस आजही आठवतो आणि स्वतःच्या मूर्खपणाबद्दल हसूही येतं. आनंदवनात साधनाताईना भेटण्याची पहिली वहिली वेळ. मागल्या वर्षी दत्तपुरातील कुष्टरोग्यांवर डोक्युमेंटरी बनवण्याचा प्रोजेक्ट हाती घेतला. काम जवळ जवळ पूर्ण होतच आलं होतं पण तरीही त्यात काहीतरी कमतरता वाटत होती. कमतरता होती ती साधनाताईंच्या मुलाखतीची आणि त्याची पूर्वकल्पना देण्यासाठी आणि त्यांची अनुमती घेण्यासाठी म्हणून आम्ही आनंदवनासाठी निघालो. मनात साधनताईंना भेटायची खूप उत्सुकता होती आणि आमच्या डोक्युमेंटरी बाबत सांगायची सुद्धा.

खूप वर्षापूर्वी म्हणजे लहानपणी एकदा ट्यूशन च्या ट्रीप सोबत आनंदवनात आलो होतो. तेव्हा कुष्टरोगी म्हणजे काय त्यांचं दुःख काय असतं याविषयी काडीमात्र कल्पना नव्हती. तेव्हा आनंदवन म्हणजे फक्त एक गार्डन वाटत होतं.

आनंदवनात आता बराच बदल झाला होता. बाबा आमटेंच्या मृत्यूनंतर सगळी जबाबदारी साधंनताईंवर आली होती आणि ती पार पाडण्यात साधनाताई कुठेही कमी पडल्या नव्हत्या. त्यांना भेटण्याची वेळ ठरलेली होती. बराच वेळ असल्यामुळे पहिल्यांदा थेट तिथल्या कुष्टरोग्यांच्या रुग्णालयात गेलो. बराच वेळ त्यांच्याशी बोललो. एक दहा ते बारा वर्षाचा मुलगा तिथे होता ज्याचा पाय कापण्यात आला होता. त्याच्याशी खूप गप्पा मारल्या. पण खरतर मनात कुठेतरी काटा रुतावा अशी सल टोचत होती.

दुपारी तीन च्या सुमारास साधंनाताईंना भेटायची वेळ झाली. एका मोठ्या झाडाखाली हिरव्या कापडाचा मोठा शेड बांधला होता. एका बाजूला साध्या प्लॅस्टिकच्या खुर्चीवर साधंनाताई शांत बसल्या होत्या. अगदी एखाद्या ध्यानस्थ मूर्तीसारख्या. अंधारात नंदादीप लावल्यावर जसा तो उजळून निघावा तशा एखाद्या नंदादीपासारख्याच त्या भासत होत्या. अतिशय शांत मुद्रा, हलकं स्मितहास्य, पण तेवढच तेज चेहर्‍यावर दिसत होतं त्यांच्या.खरतर त्या शरीराने आता खूप थकल्या होत्या पण मनाने मात्र त्या अजूनही थकल्या नव्हत्या आणि म्हणूनच चेहर्‍यावर एक शांत पण तेवढाच गंभीर भाव झळकत होता.

आमच्यासारखेच बरेच जन त्यांना भेटायला रोज येत असतील पण कधीही या सगळ्यांचा तिटकारा मात्र त्यांनी कधीही केला नाही. गर्दी ओसरल्यावर आम्ही त्यांच्या शेजारी जाऊन बसलो. त्यांचा हात आपल्या हाती घ्यायचा खूप विचार झाला पण तो मोह आवरला कारण मनात भीती होती. रागवल्या तर. खरतर त्यांच्याशी बोलण्याची खूप भीती वाटत होती. वाटत होतं या ध्यानस्थ मूर्तीकडे असच बघत राहावं. पण लगेच भान आलं कि आपल्या कडे वेळही कमी आहे आणि त्याही जास्त वेळ बसू शकणार नाही.

कशाने सुरवात करावी हाही प्रश्नच होता. मग मनात एकदम विचार आला कि आपल्याला त्यांचं आत्मचरित्र समिधा घ्यायचं आहे कारण ते वाचण्याची इच्छा खूप दिवसापासून होती आणि म्हणून नकळत मी त्यांना एकदम प्रश्न विचारला कि तुमच्या पुस्तकाबद्दल काही सांगा ना? आणि शांत भासण्यार्‍या साधंनाताई एकदम माझ्यावर रागावल्या कि हा काय पागलासारखा प्रश्न विचारता? माझ्याच पुस्तकाबद्दल मी काय सांगणार आणि खरच तुम्ही ते पुस्तक मला प्रश्न विचारण्यापूर्वी वाचलं आहे का ? कारण खरच ते पुस्तक तुम्ही वाचलं असतं तर असा मूर्खासारखा प्रश्न मला विचारलाच नसता. हे सगळं ऐकून माझी व्यथा तर एकदम केविलवाणी होऊन गेली होती. मनात सतत मी स्वतःला शिव्या देत होतो कि हे काय विचारून बसलो. एकदम अपराधी झाल्यासारख वाटत होतं.

हे सगळं पाहून माझ्या मित्रांनाही काय विचारावं हे कळत नव्हतं. थोड्या वेळाने त्याच एकदम समजवण्याच्या स्वरात माझ्याशी बोलू लागल्या तेव्हा कुठे मला थोड हायसं वाटलं. मग आम्ही त्यांना आमच्या डोक्युमेंटरी बद्दल सांगितलं आणि नकळत त्या आपल्या जुन्या दिवसांमध्ये रमून गेल्या. मग कुष्टरोग्यांविषयी त्यांच्याशी बरीच चर्चा झाली. कुष्टरोग्यांची सेवा करताना त्यांना आणि बाबांना किती हाल अपेष्ठा सहन कराव्या लागल्या, माजानं किती नाकारलं हेही त्या सांगत होत्या पण आज त्या समाधानी होत्या कारण आज परिस्थिति पूर्ण वेगळी होती. त्यांच्या आणि बाबांच्या प्रयत्नांना यश आलं होतं. आज कुष्ठरोग पूर्णतः संपण्याच्या मार्गावर आहे. आम्ही तुमची मुलाखत घ्यायला कॅमेरा घेऊन नक्की येऊ एवढ सांगून आम्ही तिथून निघालो.

नंतर आम्ही तिथे राहणार्‍या कुष्टरोगी स्त्रियांची भेट घेतली ज्या नेहमीच आपल्या घरचं कुणीतरी आपल्याला भेटायला येईल या आशेवर रस्त्याकडे डोळा लाऊन बसलेल्या असतात. आपलं दुःख सांगताना आमच्या डोक्यावर हात फिरवून त्या म्हणायच्या कि तुम्ही कोण कुठले काही संबंध नसताना आम्हाला भेटता. आमची चौकशी करता. आमचे नातूही तुमच्या एवढेच असतील पण ते मात्र कधीही इकडे चुकूनही येत नाही. एक तुटलेली नाळ जोडण्याचा त्यांचा हा वेडा प्रयत्न.....

आज साधनाताईंच्या मृत्युची बातमी ऐकताच त्यांची भेट, त्या रागवल्या तो प्रसंग डोळ्यासमोर आजही तसाच उभा आहे आणि अपराधी या साठीही वाटत आहे कि त्यांची मुलाखत आमच्या डोक्युमेंटरी साठी घ्यायची राहून गेली ......

त्यांच्या मुलाखतीशिवाय ती डोक्युमेंटरी नेहमीच अपूर्णच राहील.........

पराग अ. मगर