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Wednesday, March 30, 2011

भारतीय लोकतंत्र और सिनेमा

लोकतंत्र के चार खम्भों में सिनेमा की कोई जगह है नहीं, लेकिन सिल्वर स्क्रीन की चकाचौंध सब पर भारी पड़ेगी यह किसने सोचा होगा। "माई नेम इज खान" के जरिये सिनेमायी धंधे के मुनाफे में राजनीति को अगर शाहरुख खान ने औजार बना लिया या राजनीति प्रचार तंत्र का सशक्त माध्यम बन गयी, तो यह एक दिन में नहीं हुआ है। एक-एक कर लोकतंत्र के ढ़हते खम्भों ने सिनेमा का ही आसरा लिया और खुद को सिनेमा बना डाला। 1998-99 में पहली बार बॉलीवुड के 27 कलाकारों ने रजनीति में सीधी शिरकत की। नौ बड़े कलाकारों से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने संपर्क साधा और उन्हें संसद में पहुंचाया। जबकि 62 कलाकारों ने चुनावी प्रचार में हिस्सा लिया। और, 2009 तक बॉलीवुड से जुड़े दो सौ से ज्यादा कलाकार ऐसे हो गये, जिनकी पहुंच पकड़ अपने-अपने चहेते राजनीतिक दलों के सबसे बड़े नेताओं के साथ भी सीधी हो गयी। गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, मध्यप्रदेश के विधानसभा से लेकर आम चुनाव के दौरान सिल्वर स्क्रीन के करीब छोटे-बडे तीन सौ से ज्यादा कलाकारो ने प्रचार भी किया और अपने हुनर से नेताओ की सभा को बांधा भी रखा । कलाकारों के वक्त के लिहाज से नेताओ को अपना वक्त निकालना पड़ता लेकिन आम जनता के लिये नेताओ के पास वक्त ही नहीं रहता। मुश्किल तो यह हुई कि इस दौर की राजनीति को इसमें कोई खामी भी दिख रही। 26-11 के बाद ताज होटल का निरिक्षण करने निकले तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख का फिल्मकार रामगोपाल वर्मा को अपने साथ ले जाना इसका एक उम्दा उदाहरण है। जब देशमुख पर आरोप लगे तो उन्होने मासूमियत से कहा-इसमें गलती क्या है। सत्ताधारी राजनीतिक दलों से जुड़े होने का लाभ नौकरशाही ने भी कलाकारों को खूब दिया। सुविधा,टैक्स माफ और राष्ट्रीय पुरस्कार दिखायी देने वाला सच है। और ना दिखायी देने वाली हकीकत यही रही कि राजनीति भी सिनेमायी तर्ज पर खुद को देखने-समझने लगी। दरअसल, यह पूरा दौर आर्थिक सुधार का है, जिसमें सबसे ताकतवर बाजार हुआ और हर हालत में मुनाफे की सोच ने सामूहिकता के बोध खत्म कर दिया। इस दौर में कल्याणकारी राज्य यानी जनता के प्रति जवाबदेही होने की समझ भी राजनीतिक सत्ता से काफूर हो गयी। सबकुछ प्रतिस्पर्धा बताकर मुनाफे पर टिकाने का अद्भुत खेल शुरु हुआ। इस राजनीतिक शून्यता ने समाज में एक संदेश तो साफ दिया कि संसदीय राजनीति का लोकतंत्र भी अब मुनाफे की बोली ही समझता है। इन परिस्थितियों को समझते हुये समझाने की जरुरत चौथे खम्भे यानी पत्रकारिता की थी । लेकिन पत्रकारिता ने भी आर्थिक सुधार के इस दौर में बाजार और मुनाफे का पाठ ही पढ़ना शुरु किया। जिस राजनीतिक सत्ता पर उसे निगरानी रखनी थी, उसी सत्ता की चाटुकारिता उसके मुनाफे का सबब बनी। और पत्रकारिता झटके में मीडिया में तब्दील होकर धंधे और मुनाफे का सच टटोलने लगी। धंधा बगैर सत्ता की सुविधा के हो नहीं सकता और राजनीति बगैर मीडिया के चल नहीं सकती। इस जरुरत ने बाजारवादी धंधे में मीडिया और राजनीति को साझीदार भी बनाया और करीब भी पहुंचाया। पत्रकार भी इटंरप्नयूर बनने लगा। जो पत्रकारिता शिखर पर पहुंचकर राजनीति का दमन थामती थी और पत्रकार संसद में नजर आते उसमें नयी समझ कारपोरेट मालिक बनने की हुई। क्योंकि राजनीति बाजार के आगे नतमस्तक तो बाजार में मीडियाकर्मी की पैठ उसे राजनीति से करीबी से कहीं ज्यादा बड़ा कद देती। किसी मीडिया संस्थान में बतौर पत्रकार काम करने से बेहतर खुद का संस्थान बनाने और धंधे में सीधे शिरकत करने वाले को ही सफल मीडियाकर्मी माना जाने लगा। लेकिन चौथे खम्भे का संकट इसके बाद से शुरु हुआ जब वोट बैंक की राजनीति में सिनेमायी समझ घुसी और विकास का खांचा भी सिनेमायी तर्ज पर बनना शुरु हुआ। मीडिया सत्ता के उसी विकास को असल भारत मानने लगी जिसका खंचा राजनीति ने सिनेमा की चकाचौंध में बनाया। मीडिया ने भी इसका दोहरा दोहन किया। धंधे और मुनाफे के लिये राजनीतिक सत्ता की विकास की लकीर को ही असल इंडिया और किसी ने नहीं मीडिया ने ही बताया। जाहिर है नौ फीसदी खेती योग्य जमीन इसी दौर में औधोगिक विकास के नाम पर स्वाहा की गयी । देशभर में छह फीसद जंगल खत्म किये गये। शहरों में 22 फीसदी तक की हरियाली खत्म हुई और कंक्रीट का जंगल 19 फीसद जमीन पर तेजी के साथ पनपा। उसी दौर में तीस हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की और करीब छह लाख से ज्यादा लोगों का वैसा रोजगार खत्म हुआ जो उत्पादन से जुड़ा था। पैसा लगाने और पैसा बनाने के इस सट्टा बाजार अर्थव्यवस्था के खेल ही राजनीतिक सत्ता की नीति बन गयी। मीडिया के लिये यह कोई मुद्दा नहीं बना और राजनीति ने कभी उस भारत को देश के विकास से जोड़ने की नहीं सोची जो इस चकाचौंघ की वजह से कहीं ज्यादा अंधेरे में समाता जा रहा था। राजनेताओ की सभा में राजू श्रीवास्तव सरीखे चुटकुले होने लगे और न्यूज चैनलों ने भी राजू की हंसी ठिठोली में अपने धंधे को आगे बढ़ते देखा। लोकतंत्र के चौथा खम्भा होने का भ्रम टीआरपी से निकले विज्ञापन ने कुछ यूं तोडा कि खबरों की परिभाषा भी बदली गयी और राजनीतिक सत्ता ने नयी परिभाषा को यह कह कर मान्यता दी कि मीडिया चलाने के लिये पूंजी तो चाहिये ही। यानी मीडिया की विश्वसनीयता का नया आधार पूंजी और उससे बनने वाले मुनाफे के दायरे में घुस गया। सरकार ने बाजार आगे घुटने टेक कर अनकही नीतियों के आसरे मीडिया को अपनी सिनेमायी सोच में ढाला भी और निर्भर भी बना दिया। विश्वसनीय न्यूज चैनलों में सिल्वर स्क्रीन के कलाकारों के प्रोग्राम तो छोटी बात हुई। कलाकारो से एंकरिंग करा कर पत्रकारिता के नये मापदंड बनाये गये। ऐसा भी नहीं है कि यह सब नयी पीढी ने किया जिसने पत्रकारिता के संघर्ष को ना देखा-समझा हो। बल्कि प्रिंट पत्रकारिता से न्यूज चैनलों में आये वह पत्रकार ही इंटरप्यूनर की तर्ज पर उबरे और अपने सामने ध्वस्त होती राजनीति या कहें सिनेमायी राजनीति का उदाहरण रख नतमस्तक हो गये। जिस तरह सिनेमायी धंधे के लिये देश भर में महंगे सिनेमाघर बने और इन सिनेमाघरो में टिकट कटा कर सिनेमा देखने वालो की मानसिकता की तर्ज पर ही फिल्म निर्माण हो रहा है तो राजनीतिक सत्ता ने भी वैसी ही नीतियों को अपनाया, जिससे पैसे की उगाही बाजार से की जा सके। यानी मलटीप्लैक्स ने सिनेमा के धंधे का नया कारपोरेट-करण किया तो विकास नीति ने पूंजी उगाही और कमीशन को ही अर्थव्यवस्था का मापदंड बना दिया। और मीडिया ने सिल्वक स्क्रीन की आंखो से ही देश की हालत का बखान शुरु किया। खुदकुशी करते किसानो की रिपोर्टिंग फिल्म दो बीघा जमीन से लेकर मदर इंडिया के सीन में सिमटी। 2020 के इंडिया को दुबई की सबसे ऊंची इमारत दिखाकर सपने बेचे गये। नीतियों पर निगरानी की जगह मीडिया की भागेदारी ने सरकार को यही सिखाया कि लोग यही चाहते हैं, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे टीआरपी के लिये न्यूज चैनल सिनेमायी फूहडता दिखाकर कहते है कि दर्शक तो यही देखना चाहते हैं। धंधे पर टिके सिनेमा की तर्ज पर मीडिया और उसी तर्ज पर राजनीतिक सत्ता के ढलने से तीस फिसद इंडिया में ही समूचा भारत देखने की समझ नीतिगत तौर पर उभरी। स्पेशल इकनामी जोन से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट के घेरे में ग्रामीण समाज और आदिवासी हाशिये पर चला गया लेकिन ग्लोबल बाजार की पूंजी इन परियोजनाओ से जुड़ती चली गयी और सरकार को फायदा ही हुआ। वहीं मीडिया में विकास का आधार भी सत्ता के अनुकूल हो गया। यानी उपभोक्ता बनाकर बाजार पर निर्भर करने की मानसिकता से जुड़े तमाम खबरें हो या प्रचार विज्ञापन सबकुछ मीडिया ने आंख बंद कर छापा भी और न्यूज चैनलों में दिखाया भी। इतना ही नहीं सरकार की जिन नीतियों ने स्कूलों से खेल मैदान छिने, मोहल्लो से पार्क छिने। रंगमंच खत्म किया । खेल स्टेडियम को फीस और खेल विशेष से जोड़ दिया उसमें समाज के सामने मनोरंजन करना भी जब चुनौती बनने लगा तो सिनेमा और सिनेमायी तर्ज पर न्यूज चैनलों को उसी राजनीतिक सत्ता ने प्रोत्साहित किया, जिसका काम इन तमाम पहलो को रोकना था। पूंजी पर मीडिया को टिकाकर सत्ता की सिनेमायी सोच ने पत्रकारिता के आयामों को ही बदल दिया। पत्रकारिता खुद ब खुद उस लघु पत्रिका का हिससा बन गयी जो नब्बे के दशक तक मुख्यधारा की पत्रकारिता को भी चुनौती देती थी। लेकिन उस दौर में मुख्यधारा की पत्रकारिता का मतलब कहीं ना कहीं सत्ता को चुनौती देते हुये बहुसंख्य लोगों से जुडे सवालों को उठाना होता था । और लघु पत्रकारिता विकल्प की सोच लिये विचारों का मंच बनाती थी। लेकिन नयी परिस्थितियों ने मुख्यधारा का मतलब सत्ता से करीबी और कारपोरेट पूंजी के तौर तरीकों से मीडिया को व्यवसायिक बनाकर आगे बढ़ाना है। इसमें खबर का मतलब सरकार की नीतिय का प्रचार और कारपोरेट धंधे के नये गठजोड़ होते हैं। और मनोरंजन से जुडी खबरे जो सिनेमायी धंधे को समाज का असल आईना बताती है। न्यूज चैनल का एंकर किसी नायक-नायिका की तर्ज पर खुद को रखता है और संपादक फिल्म प्रोडूसर की तर्ज पर नजर आता है। राजनेता का मापदंड भी उसके औरे से तय होता है। नेता का ग्लैमर , उसका लोगो से कटकर न्यूज चैनल के पर्दे पर लगातार बोलना ही उसकी महत्ता है। यानी एक तबके बर के लिये सिनेमा, उसी के लिये राजनीतिक सत्ता की नीतियां और उसी के मानसिक मनोरंजन के लिये मीडिया, लोकतंत्र का नया सच कुछ इसी परिभाषा में सिमट गया है। और लोकतंत्र बार बार पारंपरिक खम्भों की दुहाई दे कर एहसास करता है कि देश में सबका हक बराबर का है। हर कोई बराबर का नागरिक है। जिसका मापदंड चुनाव है जिसमें हर कोई वोट डाल सकता है और सभी का मत बराबर का होता है। यह अलग बात है कि वोट बैंक डिगाने के लिये नेता पूरी तरह सिनेमायी नायक-नायिका पर जा टिका है और मीडिया सिलवर स्क्रीन का आईना बन गया है। कह सकते है पहले समाज का आईना फिल्म होती थी अब फिल्म का आईना समाज माना जाने लगा है । इसलिये सवाल माई नेम इज खान का नहीं है, सवाल यह भी नहीं है कि है मनमोहन सिंह भी कहें, " माई नेम इज मनमोहन और मै पीएम नहीं हूं।" क्योंकि मै सीइओ हूं। लेकिन मीडिया से कौन निकल कर कहेगा कि माई नेम इज गणेश शंकर विद्यार्थी और मै पत्रकार नहीं हूं।

Saturday, March 26, 2011

भूमंडलीकरण के तंदूर पर ‘विज्ञापन’ के पकवान


-प्रदीप सिंह

भूमंडलीकरण के बाद सब कुछ बदल गया है। रहन-सहन, संस्कृति, उद्योग अब तो राजनीति तक की दिशा-दशा को व्यापक पैमाने पर भूमंडलीकरण ने प्रभावित किया है। विज्ञापनों का मायाजाल पूरे समाज को अपने गिरफ्त में लिए हुए है। विज्ञापन का कारोबार आज हजारों करोड़ रुपए का है। मार्केट में टिकना आज विज्ञापन पर आधारित हो गया है।

वस्तु की गुणवत्ता से ज्यादा विज्ञापन की गुणवत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है। आज से कुछ समय पहले तक कोई वस्तु या तो मौलिक होती थी, या कृत्रिम। तब आदमी अपनी खुली आंखों से वस्तु की अच्छाई-बुराई पहचान लेता था। आज तो खुलेआम यह कहा जा रहा है कि, ‘फैशन के इस दौर में गारंटी ना बाबा ना!विज्ञापन के इस दौर में अच्छे-बुरे को पहचानने का काम आसान नहीं रहा। जरूरत के अच्छे सामान को खरीदना बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। आज हम उस सामान को भी खरीदने को बेबस हैं जिसकी हमें वास्तव में कोई जरूरत नहीं है।

आज उस सामान का बाजार में बोलबाला रहता है, जिसका विज्ञापन मशहूर सिने तारिका या मॉडल कर रही हो। कंपनियां अपना माल बेचने के लिए उत्पाद आने के पहले से ही प्रचार करने लगती हैं।

कुछ समय पहले तक हर शहर और कस्बे में कुछ मशहूर दुकानें होती थीं। जिसके यहां का सामान लोग आंख मूंद कर खरीदते थे। उन दुकानों की प्रसिद्धि के पीछे सामान की गुणवत्ता, शुद्धता और दुकानदार की ईमानदारी होती थी। आज के समय में व्यापार का यह तरीका पुराना पड़ गया है। विज्ञापनों की दुनिया ने सब कुछ उलट-पलट दिया है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अंधाधुंध विज्ञापन के जरिए बाजार पर अपना शिकंजा कस लिया है। किसी जमाने में उनके विज्ञापन अंग्रेजी में होते थे। लेकिन, अब उनके विज्ञापन स्थानीय भाषाओं में होते हैं। उनका प्रचार करने के लिए होते हैं, उस देश के सेलिब्रेटी, फिल्मकार और पढ़े लिखे लोग, जो रातों-रात अमीर बनना चाहते हैं। दृश्य माध्यमों विशेष रूप से टीवी धरावाहिकों और फिल्मों के नायक, नायिका अपनी लोकप्रियता और आकर्षण के बदले विज्ञापन कंपनियों से सौदा कर लेते हैं। कोई जूते का विज्ञापन कर रहा है तो कोई अन्य उपभोक्ता सामान का।

चमकते, दमकते नायक और इठलाती, बलखाती नायिका जब अपने गालों या बालों की खूबसूरती टीवी पर दिखाती हैं और सुंदरता का सारा राज किसी विशेष क्रीम को बताया जाता है तो जनता के दिमाग पर इसका बहुत गहरा असर होता है। लोग उत्पाद के गुण-दोष पर विचार करना भूल जाते हैं।

किसी भी उत्पाद को मार्केट में बेचने के लिए बकायदा तर्क तैयार किए जा रहे हैं। उसके फायदे बताए जा रहे हैं। आम आदमी को उस उत्पाद को खरीदने के लिए हर तरह से ललचाया जा रहा है। विज्ञापन अब एक उद्योग का रूप ले चुका है। उत्पाद का जो मूल्य होता है उसमें बहुत बड़ा भाग विज्ञापन का ही होता है। यह राशि औसतन दस से बीस प्रतिशत तक होती हैं। इस राशि में एक मोटा हिस्सा विज्ञापन करने वाले सितारों या सेलिब्रिटी का होता है।

ये वे लोग हैं जो जनता की नजर में नायक हैं लेकिन वास्तव में वे काम खलनायक का करते हैं। हाल ही में प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण की संस्था ने देश में पीने के पानी और शीतल पेय पर एक अध्ययन किया। यह अध्ययन वैज्ञानिक तौर-तरीके से किया गया। इसमें निष्कर्ष निकला कि देश में इस समय जितनी शीतल पेय कंपनियां हैं, वे शुद्धता के मानकों को पूरा नहीं कर रही हैं। उनके द्वारा बनाया गया पेय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान से लेकर आम जनता तक में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। पूरे देश में उत्तेजना का माहौल बन गया। लेकिन तभी मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी की जाने लगी। पेप्सी और कोक के समर्थन में राजनेता आने से कतरा रहे थे।

ऐसी स्थिति में कुछ दिन के लिए समाजसेवक बने आमिर खान आगे आए। उन्होंने जहरीले पेय को फिर से जनता को पिलाने के लिए कमर कस ली। आमिर खान के बड़े-बड़े होल्डर और पोस्टर से बाजार रंग दिए गए। पेप्सी और कोक का बोतल पीते आमिर खान सारे आरोपों को पी गए। अपने आकर्षण से आम जनता को चमत्कृत करने वाले आमिर खान ने जनता को जहरीला पेय पीने से कोई हानि न होने की गारंटी दे दी। भोली जनता इसे मान भी गई और फिर से पेप्सी कोक के जाल में आ फंसी।

विज्ञापन करने में हमारेमहानायकअमिताभ बच्चन का बड़ा नाम है। अपनी लोकप्रियता के बदले में उपभोक्ता सामग्री को उसके वास्तविक मूल्य से अधिक में बिकवाकर स्वयं और उस उद्योग के मालिक के लिए वे दोनों हाथ से पैसा कमा रहे हैं। इसी के साथ वे उत्तर प्रदेश की सरकार का स्तुतिगान भी करते रहे। विगत दिनों में उत्तर प्रदेश की सरकार और राजनीति किन लोगों के हाथ में थी, यह सबको पता है।

अमिताभ बच्चन ने प्रदेश सरकार की वंदना में मध्यकालीन दरबारी चारण और भाटों को भी पीछे छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में है दम! क्योंकि, यहां है अपराध सबसे कम।यह राजनीति के विज्ञापन का भौंडा नमूना है। शत्रुघन सिन्हा, धर्मेन्द्र , हेमामालिनी, विनोद खन्ना, जयाप्रदा, राजेश खन्ना, जया बच्चन, स्मृति इरानी, दारा सिंह अपनी चलचित्रीय छवि के प्रभाव में राजनीति का विज्ञापन कर रहे हैं। भूमंडलीकरण के शुरुआती दिनों में बड़ी तेजी से भारत की विश्व सुंदरिया चुनी गईं। यह सब भारत के विशाल बाजार को कब्जे में लेने की सोची-समझी चाल थी। ऐसे में हम पाते हैं कि भूमंडीकरण की ज्वाला में विज्ञापन का ही बोलबाला रह गया है।

Sunday, March 13, 2011

आर्थिक राजधानी की अर्थहीन महिलाओं का समाज.

निलेश झालटे

युवा पत्रकार


महिला सशक्तिकरण के नाम पर देश में कई आंदोलन चल रहें हैं. इन आंदोलनों के बावजूद महिलाओं की स्थिति सोचनेलायक हैं. देहाती महिला के सामने जो प्रश्न हैं वहीँ बड़े-बड़े शहरों में रहनेवाली महिलाओं के सामने हैं भलेही उसमे कुछ अंतर जरुर पाया जायेगा. लेकिन पुरुषवादी मानसिकता के दृष्टिकोण से यह तमाम प्रश्न देहात और शहर दोनों में एकसमान है. दिल्ली में खासकर महिला सुरक्षा पर स्थिति सोचनीय हैं. लेकिन क्या सिर्फ दिल्ली में ही बलात्कार,ब्लेडवार,खून,छेडछाड जैसी अमानवीय वारदातों से महिलाओं में खौफ हैं? नहीं. यह तो हमारी मुंबई में भी अक्सर होनेवाली घटनाएँ हैं. ऐसी घटनाओं से मुंबई अछूती नहीं हैं. देश की आर्थिक राजधानी में बॉलिवुड का मसाला, पर्यटन, राजनीति ,व्यापार से भलेही यह शहर उच्च कोटी की श्रेणी में आता हो किन्तु यह श्रेणी निश्चित ही ऐसे वारदातों से अछूती नहीं है. इस प्रकार की घटनाएँ मुंबई को भी अब रास आने लगी हैं .
हाल में ‘कल्याणी अनाथालय’ में पांच गतिमंद नाबालिक लड़कियों पर अत्याचार का स्केण्डल निदर्शन में आया. इन लड़कियों को समाज के नियमों का या फिर ढंग से जीने का मतलब ही ज्ञात नहीं होता ऐसी मासूमों पर कई दिनों से यह समाजशील कहलानेवाले असामाजिक प्राणी कुकर्म कर रहें थे. यह कोई पहली वारदात नहीं है इससे पहले ऐसी कई दुर्दैवी घटनाएँ को इस शहर में अंजाम मिला हैं. परदेशी पर्यटकों को भी यहाँ पर बक्षा नहीं गया है.
इसी मुंबई में १९७३ में केईएम अस्पताल में घटी एक ऐसी ही घृणास्पद घटना में अरुणा शानबाग अपना आस्तित्व खो बैठी. वो अत्याचारी इस वासनाकांड के सात साल बाद मुक्त हो गया लेकिन अरुणा आज भी मुक्त नहीं हो पायी है. सर्वोच्च न्यायालय में उसके इच्छामृत्यु की मांग ख़ारिज कर फिर एकबार उसको मार दिया है. किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अस्वस्थ करनेवाली यह खबर वाकई सोचनीय हैं. ३७ साल एक ही बेड पर गुजरने वाली अरुणा को न्यायालय उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति का जायजा कर जिनेलायक स्थिति ना होकर भी उसके मरने को ख़ारिज कर दिया. हालाँकि न्यायालय उसके इच्छामृत्यु को स्वीकृति भी दे सकता था लेकिन अस्पताल के तमाम कर्मचारियों के साथ जो उसका रिश्ता बन गया है या फिर अरुणा अपनी प्राथमिक संवेदनाएं उनके सामने जिस प्रकार व्यक्त करती हैं वह सोचनीय हैं.
तीसरी घटना इसी आलीशान शहर की हैं जहाँ पर एक एड्स पीड़ित महिला एड्स बांटते हुये मुंबई में घूम रहीं हैं और उसने अभी तक ३०० से ज्यादा लोगों को अपने सिखंजे में फसाया हैं. पता चला की उक्त महिला के पति को एड्स था वो मर भी गया एक बच्चा पैदा होने के बाद जब इसको पता चला की पति के द्वारा एड्स हुआ है तो उसने इसका गुस्सा तमाम पुरुष जाती पर निकालने की सोच लिया और ना जाने मालिकों से लेकर लिफ्टमैन तक उसने कईयों की जिंदगी बर्बाद कर दी.
किसी भी बीमारी के ठीक नहीं होने और उसके कारण भयानक पीड़ा होने की दशा में स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में लोगों को इच्छाम मृत्युं का अधिकार मिला हुआ है। इस काम को वहां अपराध नहीं माना जाता और इसके लिए डॉक्टरों को सजा नहीं होती। नीदरलैंड में भी डॉक्टरों की मदद से दी गई इस तरह की मृत्यु को वैध माना गया है। अमेरिका के 15 राज्यों में इसे 'असिस्ट सुसाइड' के रूप में मान्यता देने के लिए वोटिंग कराई गई। इसी तरह अल्बानिया और लग्जमबर्ग में भी यूथनेशिया को लीगल माना गया है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी हिस्से में नब्बे के दशक में एक छोटी सी अवधि के लिए इसकी इजाजत थी। यहां और कई देशों में आज भी इसे लेकर बहस जारी है। आखिर इतना सबकुछ होने के बाद भारत में ही यह नियम क्यों नहीं? क्यों बार-बार अरुणा को मारा जा रहा हैं. इसमे गलती किसकी है ? अरुणा की या उस कुकर्मी की जो यह कुकर्म कर न्यायालय के हिसाब से कब से ही मुक्त हो गया, या केईएम के उन तमाम कर्मचारियों की जिनको अभागी अरुणा के प्रति संवेदनाएं हैं ?
आज भी देश में लड़कियोंको जन्म से पहले और बाद में भी मारने प्रमाण सबसे ज्यादा हैं. वैज्ञानिक सुविधाभोगी लोग गर्भ को पहचानकर उसकी जिंदगी वहीँ पर खत्म करते हैं. इससे भी बदतर स्थिति में जो लोग जन्म के बाद लड़की को कहीं पर छोड देते है और वह अनाथ कहलाती है. और फिर वहाँ पर अनाथों के लियें अनाथालय स्थापन किया जाता हैं उसके नाम पर सरकार से,समाज से कई मार्गों से पैसा और पुरस्कार कमाने की होड लग जाती हैं. लेकिन जिसके बलबूते पर आप अपने इस गंदे खेल को अंजाम देते हैं उसीके जीवन के साथ आप खिलवाड़ करतें हैं . उनकी मजबुरीका फायदा ये लोग अपनी वासना को तृप्त करके उठातें हैं. यहाँ जिम्मेवार कौन है ? वो लोग जिन्होंने इस कांड को अंजाम दिया या वह गतिमंद बच्चिया जिन्हें समाज के तौर-तरीके पता नहीं हैं, या फीर खुद समाज जो इन्हें समाज से दूर रखता हैं..
पारिवारिक संघर्षों के तमाम उदाहरण हमारे सामने आतें हैं इसमें मुख्यतः से पति ओर पत्नी केन्द्र में होतें है और इनके बीच सबसे महत्त्वपूर्ण होता हैं विश्वास..जब दोनों में से किसी एक के विश्वास को ठेस पहुँचती हैं तो तो उक्त संघर्ष की शुरूवात होती हैं. खासकर बड़े शहरों में यह उतने ही बड़े पैमाने पर फैलता हैं. पति के गलती की सजा सारें समाज को देने घूम रही औरत शहर के उन वासनांध लोगों के लिए लोलीपॉप बनती गयी और वो अपने काम को सटीक रूप से अंजाम देते चली गयी. शहरों की आबोहवा में घूमनेवाले तमाम लोग अपनी वास्तविक जीवन से तुरंत विचलित होतें गये .. अब यहाँ कौन कसूरवार हैं? वो पति जो इसे अनजाने में एड्स दे गया, या वो औरत जिसने पति के पापों की सजा तमाम पुरुषवर्ग को देनी चाही, या फिर वहीँ शहर के लोग जो वासना के चक्कर में आकर क्षणिक सुख के लिए अपनी जिंदगी दावं पर लगा बैठे.
हालाँकि ऐसी ना जाने कई घटनाएँ देश की इस आर्थिक राजधानी में बार-बार घटती हैं .लेकिन अंततः इसका ज्यादातर शिकार तो महिला ही होती हैं . इन तमाम घटनाओं का अंत समाज की नजर में मृत्यू हैं. चाहे अरुणा शानबाग की इच्छामृत्यु की मांग हो, उन बेबस लड़कियों की लाचार जिंदगी हो, या फिर उस महिला की बदले की आग हो. अंत में एक सवाल की इन स्थितियों का सबका जिम्मेदार कौन ? वो शहर जो आपको जीने की राह तो दिखता हैं और रोज नयें-नयें मृत्यू के अवसर देता हैं..