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Saturday, April 9, 2011

विज्ञापन की दुनिया में अश्लीलता की भरमार



”कहां चले ओ बाबूजी, कपड़े क्यों हैं मैले धुले” याद है निरमा के विज्ञापन में खंबे पर लगे बोर्ड में सड़क पर जाते बाबूजी को याद दिलाती वो छोटी सी बच्ची, या ओके और लाइफ बॉय साबुन से पापा के साथ नहाता बच्चा। यदि इनकी तुलना आज के विज्ञापन से करें तो पाएंगे कि दोनों में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है। पहले कोंडम का एक ही विज्ञापन आता था जिसमें माता-पिता सरीखे दिखते दो लोगों की परछाई समुद्र मंे डूबते सूरज की ओर हाथ पकड़े बढ़ती दिखती थी और विज्ञापन का काम पूरा हो जाता था। बच्चे समझ नहीं पाते थे और बड़ों तक परिवार नियोजन का संदेष पहुंच जाता था। परंतु आज हर विज्ञापन में प्रोडक्ट की क्वालिटी से ज्यादा यौनवृत्ति का प्रचार हो रहा है। खासतौर से डियोज़ के विज्ञापनों ने तो तबाही मचाई हुई है। इन विज्ञापनों में दिखाई जाने वाली कामुक भाव-भंगिमाएं और अर्धनग्न नारी देहयष्टि परिवार में बैठे लोगों को नजरे झुकाने पर मजबूर करने के लिए काफी है। विज्ञापन आज की विधा नहीं है। विज्ञापन का अस्तित्व प्राचीन काल से किसी ना किसी रूप में मौजूूद रहा है। पहले जमाने में मुनादी पीट कर संदेश का प्रसारित किया जाता था जो कहीं ना कहीं विज्ञापन का ही स्वरूप है। विज्ञापन ने अपनी उपस्थिति 550 ईसा पूर्व ही दर्ज करा ली थी। भारत में लिखित विज्ञापन के प्रयोग के भी कुछ प्रमाण मिलते हैं। उस वक्त भोजपत्र के वृक्ष की छाल और कपड़े पर विज्ञापन लिखा जाता था। उस जमाने में विज्ञापन किस तरह के रहें होंगे इसके तो बहुत ज्यादा प्रमाण नहीं हैं परंतु रोम में खोया-पाया के विज्ञापन के प्रमाण हैं। खोया-पाया संबंधित विज्ञापन लिखने के लिए पपाइरस नाम के एक पेड़ के तने का प्रयोग किया जाता था। इसके तने में पाए जाने वाला एक विशेष पदार्थ लिखने में सहायक होता था। लिखने के बाद इस तने को दीवारों पर चिपका दिया जाता था। 16वीं शताब्दी आते-आते प्रिंटिंग मशीनों का जन्म हो चुका था। धीरे-धीरे विज्ञापन का प्रयोग पर्चो और समाचार पत्रों में दिखने लगा। अखबारी विज्ञापन की शुरूआत इंग्लैंड के एक साप्ताहिक समाचार पत्र से मानी जाती है। उस वक्त अखबारी विाज्ञापनों में पुस्तक प्रकाशन संबंधी विज्ञापन प्रधान रूप से छपते थे। बाद में दवाओं और वर्गीकृत विज्ञापन भी अखबारों का हिस्सा बनाने लगे। 18वीं शताब्दी में वैश्विक अर्थवयवस्था अपने विस्तार में थी। अतः विज्ञापन का भी इसके साथ-साथ व्यापक प्रसार हुआ। अब विज्ञापन अखबारों में अपनी खास जगह बनाने लगा था। विज्ञापन का भी संस्थागत विकास होना शुरू हुआ। इसी क्रम में विश्व की पहली विज्ञापन एजेंसी (1841) में बोस्टन में स्थापित हुई। जिसका नाम रखा गया वालनी पामर। अखबारी विज्ञापन में कमीशन की शुरूआत करने वाली विज्ञापन एजेंसी वालनी पामर विज्ञापन पर 25 प्रतिशत कमीशन लेती थी।




यदि विज्ञापन की टेलीविजन में शुरूआत देखी जाए तो पहला विज्ञापन 1 जुलाई 1941 में प्रसारित हुआ था। जिसके लिए बुलवा कंपनी ने 4 डालर की कीमत चुकाई थी। यूके में टीवी विज्ञापन की शुरूआत गिब्स एस.आर. टूथेपेस्ट के विज्ञापन से हुई जिसे आईटीवी पर 21 सितबंर 1955 में दिखाया गया। इसके बाद तो विज्ञापन का सिलसिला ऐसे चला कि खाने की चीज से लेकर पहनने, काॅस्मेटिक से लेकर घरेलू उपकरणों के विज्ञापन टीवी और अखबारों में छा गए। विज्ञापनों की खासियत यह होती थी कि कुछ सेंकेंड या एक मिनट के अंदर वो उपभोक्ता के ऊपर गहरी छाप छोड़े। इसके लिए छोटी-छोटी पंच लाइन या विज्ञापन की खासियत दर्शाती कोई लाइन होती थी। खेतान बस नाम ही काफी है, लाइफबाॅय हैं जहां तदुरूस्ती है वहां, ओके नहाने का बड़ा साबुन, जो बीवी से करें प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करें इंकार जैसे कुछ जिंगल लोंगों को आज भी याद हैं। उस जमाने में विज्ञान में काम करने वाले साधारण कलाकार होते थे जो उत्पादों को उनकी विशेषता गिनाकर ग्राहक को लुभाते का प्रयास करते थे। इसके बाद विज्ञापन एंजेंसियों ने विज्ञापनों में हास्य का पुट डालना शुरू किया। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह समझा गया कि चुटीले और सरस विज्ञापन ग्राहकों के मन पर गहरा असर छोड़ेंगे। ऐसा हुआ भी। इसी दौरान एनीमेशन ने भी विज्ञापन की दुनिया में पांव पसारने शुरू किए। अमूल के विज्ञापन अटरली-बटरली डिलीशस को कौन भूल सकता है। समय बदला, विज्ञापन की थीम भी बदली परंतु अमूल का एनीमेटेड करेक्टर वो लड़की आज भी वैसे अपनी नटखट अदाओं के साथ अमूल बटर की ब्रैंड एंबेस्डर बनी हुई है। समय के साथ विज्ञापन की दुनिया भी बदल रही थी। प्रतिस्पर्धा के दौर में ब्यूटी क्रीम और गोरा बनाने वाले साबुनों की बाढ़ सी आ गई। वीको टरमर्रिक की हल्दी चंदन से निखरी बन्नो पीछे छूट गई और आधुनिक नारी गोरेपन की क्रीम और साबुन के इस्तेमाल से विश्वास से लबरेज दिखने लगी। इसके बाद विज्ञापन की दुनिया पर फिल्मी सितारों ने कब्जा कर लिया। साबुन तेल शैंपु और क्रीम के विज्ञापनों में नई और शिखर पर बैठी तारिकाओं को लाने की होड़ लग गई। लक्स ने तो श्री देवी से लेकर माधुरी, ऐश्वर्या, और अब कैटरीना तक को साइन किया। अपने समय की टाॅप स्टार रही लगभग सभी हीरोइनों ने लक्स का विज्ञापन किया। समय के साथ मशहूर खिलाड़ियों और अभिनेताओं ने भी विज्ञापनों पर कब्जा किया और घर-घर उस उत्पाद की लोकप्रियता के साथ-साथ अपनी लोकप्रियता में भी इजाफा किया। एक वक्त ऐसा आया जब भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी मैदान में कम और विज्ञापन में ज्यादा नजर आने लगे। विज्ञापन की दुनिया तेजी से बदल रही थी। नए-नए प्रयोग हो रहे थे। इसके अलावा बाजार में तरह-तरह के उत्पादों की संख्या बढ़ती जा रही थी ऐसे में अपनी पहचान अलग बनाने के विज्ञापनों में एक नया प्रयोग हुआ औैर वो था नारी देह का प्रयोग। बाथ टब से होती हुई नारी हर उस विज्ञापन में नजर आई जहां उसकी आवश्यकता नहीं थी। मसलन पुरूषों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले उत्पादों शेविंग क्रीम, रेजर, बैट्री सब जगह नारी उस उत्पाद का विज्ञापन करने लगी। नारी को उपभोक्तावादी संस्कृति में ढाल कर विज्ञापन को लोकप्रिय बनाने की कवायद शुरू हुई। हैरानी होती है ऐसे विज्ञापनों में नारी को देख कर जिसमें उनकी शारीरिक या मानसिक विशेषता मेल ना खाती हों ऐसा ही एक नया विज्ञापन आया है। एक सीमेंट के विज्ञापन में एक लड़की को लाल रंग की बिकनी में समुद्र से निकलते दिखाया जा रहा है लगा और “विश्वास है इसमें कुछ खास है” पंच लाइन का प्रयोग किया जा रहा है। नारी शरीर का कोमलता से हटकर मजबूती के पर्याय सीमेंट के इस नए नवेले विज्ञापन में हुए अदभुत प्रयोग देखकर बाजारवादी संस्कृति के दर्शन हो गए। बात यही पर नहीं रूकी। गलाकाट प्रतियोगिता में विज्ञापनों पर छाने वाली भारतीय बाजार के लिए एकदम नई चीज थी वो थी डियोज़ के विज्ञापन। इन विज्ञापनो ने नारी देह के प्रयोग की सीमाएं सभी सीमाएं लांघ दी। ज्यादातर विज्ञापनों में विदेशी बालाएं टूपीस में डिओ लगाने वाले हंक के पीछे दौड़ती नजर आती हैं। इन सभी विज्ञापनों में अपना उत्पाद बेचने के लिए अश्लीलता की हद तक भाव और परिधान का प्रयोग हो रहा है। नारी को इस तरह चित्रित किया जा रहा है कि मानो आपने फलां डिटर्जेंट लगाया और नारी काममुग्ध दौड़ी चली आई। उसके अपने अस्तित्व की कहीं जगह नहीं है।