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Wednesday, September 26, 2012

सूचना के अधिकार कानून के तहत मीडिया को भी लाना चाहिए 
--अनिल चमडिया

कोलकता के जे एन मुखर्जी ने एक समाचार पत्र में एक लेख पढ़कर लेखक की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के लिए पत्र लिखा।उन्हें महीनों तक जवाब नहीं मिला।लेकिन लेखक के बारे में जानना जरूरी था क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी एक विषय पर उन्होने जो दावे किए थे वो भ्रामक थे और एक हद तक बेबुनियाद भी थे। उस लेख में किसी नये उत्पाद का बाजार बनाने की योजना दिखाई दे रही थी। जे एन मुखर्जी समाचार पत्र के दफ्तर पहुंच गए। लेकिन उन्हें कई बार की भागदौड़ के बाद भी उस लेखक का न तो पता ठिकाना मिला और वो शोधकर्ता है भी नहीं उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। लेकिन उस दफ्तर के आखिरी चक्कर में एक संपादकीय सहयोगी ने उन्हें एक जानकारी दी कि कई चीजें प्रायोजित होती है और उसमें लेखक का पता ठिकाना और पृष्ठभूमि तलाशना व्यर्थ है। जन संचार माध्यमों में रोजाना जितनी तरह की सामग्री परोसी जाती है उनमें से बहुत बड़ा हिस्सा खबरों का नहीं होता है।उन्हें मौटेतौर पर प्रचार सामग्राी कहा जा सकता है।लेकिन वो खबरों की तरह प्रस्तुत की जाती है और उन पर खबरों की तरह भरोसा भी किया जाता है।अपनी बातें लोगों तक पहुंचाने के लिए तमाम तरह के संगठन रिपोर्टरों को तरह तरह से प्रेरित करते हैं। ये एक खुली किताब की तरह है कि पत्रकारों को बड़े बड़े गिफ्ट मिलते हैं। सैर सपाटे करने की सुविधाएं मिलती है।इन सबके प्रभाव में रिपोर्टर खबरें प्रस्तुत करते हैं।कहा जा सकता है कि दूसरे पेशों की तरह पत्रकारिता में भी बहुत लोग ऐसे हो सकते हैं।उस संस्थान को उनके व्यक्तिगत आचरण के बारे में कैसे हर बात ती जानकारी हो सकती है जिसमें वह काम करता है।लेकिन संस्थान को एक बात की जरूर जानकारी होती है यदि कोई संस्था या व्यक्ति अपनी उपलब्धियों या अपने शोध की सफलता के लिए किसी रिपोर्टर को कहीं ले जाता है लेकिन उसकी रिपोर्ट को रिपोर्टर की खबर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।क्या किसी को यह लगे कि उस खबर को प्राप्त करने के लिए किसके संसाधन का इस्तेमाल किया गया तो ये बताया जाना चाहिए?
किसी रिपोर्ट से जुड़े विभिन्न तरह के सवालों का जवाब जानने का कोई रास्ता नहीं है।तब सवाल है कि क्या मीडिया संस्थान को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाया जा सकता है? यह कानून निजी संस्थानों पर सीधे तौर पर लागू नहीं है।लेकिन मीडिया दूसरी निजी कंपनियों की तरह नहीं है।मीडिया खुद को संसदीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में परिभाषित करता है।जिस तरह से संसदीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों पर यह कानून लागू होता है तो मीडिया संस्थानों पर क्यों लागू नहीं किया जाना चाहिए? तीनों स्तंभों पर भी इस कानून के लागू होने की एक सीमा निश्चित की गई है।निश्चिततौर पर मीडिया का मामला कई मायने में बेहद संवेदनशील है। इस कानून के इस्तेमाल की खुली छूट नहीं दी जा सकती हो। जैसे मीडिया के पास अपने सूत्रों को नहीं खोलने का विशेषाधिकार प्राप्त हैं। भले ही उसके दुरूपयोग की भी शिकायतें मिलती रहती है। लेकिन जिस तरह से संसद और न्यायालयों ने कुछ विशेषाधिकार अपने लिए सुरक्षित बनाए रखें हैं मीडिया को भी ऐसे कुछ विशेषाधिकार हासिल हो सकते हैं। लेकिन जहां विशेषाधिकार पर आंच नहीं आती हो कम से कम वैसे मामलों में तो सूचना के अधिकार के तहत उन्हें लाया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि सूचना का अधिकार कानून मीडिया पर लागू नहीं है। सार्वजनिक उपक्रमों के तहत संचालित मीडिया पर ये कानून लागू हैं। इसके अलावा पिछले विधानसभा के चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मतदाताओं ने चुनाव आयोग के जरिये मीडिया संस्थानों से कई जानकारियां हासिल की थी। खासतौर से उम्मीदवारों द्वारा विज्ञापन के मद में किए गए खर्च का ब्यौरा हासिल किया था। इस लेखक के पास भी प्रेस सूचना कार्यालय ने लगभग तीन वर्ष पूर्व एक पत्र भेजकर पूछा था कि आपकी वार्षिक आमदनी कितनी है। सूचना के अधिकार कानून के तहत पीआईबी से उनके यहां मान्यता प्राप्त तमाम स्वतंत्र पत्रकारों की आमदनी का हिसाब किताब पूछा गया था। पीआईबी में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र संवाददाताओं को अपनी मान्यता के नवीनीकरण के लिए अंकेक्षण द्वारा सत्यापित आमदनी का ब्यौरा पेश करना होता है। पीआईबी ने आमदनी के बारे में सूचना की मांग करते हुए इस सवाल पर टिप्पणी भी दर्ज करने की मांग की थी कि क्या इस तरह की सूचनाएं देनी चाहिए? जब हर वर्ष अपनी आमदनी का ब्यौरा पेश करने की बाध्यता है तो फिर सूचना के अधिकार कानून के तहत किसी को यह जानकारी लेने से कैसे रोका जा सकता है? मीडिया का पूरा व्यापार भरोसे पर टिका है। जिस तरह से मीडिया के आचरण को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं वैसी स्थिति में एक रास्ता ये है कि पारदर्शिता के दरवाजे थोड़े खोले जाएं।पिछले दिनों टेलीविजन चैनलों की खबरों को लेकर शिकायतें बढ़ने लगी तो एक नई बहस शुरू की गई। क्या सरकार को कोई निगरानी तंत्र का निर्माण करना चाहिए ? सरकार ने कानून का प्रारूप भी तैयार कर लिया था । उसका जोरदार विरोध हुआ। लेकिन उस विरोध के साथ ब्राडकास्टरों ने सरकार को ये भरोसा दिलाया कि वे अपने स्तर पर इस तरह के एक निगरानी तंत्र का गठन करेंगे। ब्राडकास्टरों ने जे एन वर्मा की अध्यक्षता में एक निगरानी तंत्र का गठन किया है जो दर्शकों की शिकायतों का निपटारा करेंगे। इसी तरह से जरूरी है कि पिं्रट के संदर्भ में ये किया जा सकता है कि सूचना के अधिकार कानून की भवानाओं के अनुरूप कोई ऐसा तंत्र विकसित करें जहां से पाठक अपनी सूचनाओं का जवाब हासिल कर सकें।अभी मीडिया द्वारा खुद खबरों के लिए इस कानून का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। लेकिन मीडिया को भी अपने लिए इस कानून का इस्तेमाल करने की सुविधा मुहैया कराई चाहिए।


कोलगेट : भूतपूर्व एयर मार्शल और भूतपूर्व मंत्रीजी की जुगलबंदी

-दिलीप खान

गांधी शांति प्रतिष्ठान में भारत-नेपाल संबंधों को लेकर महीने की शुरुआत में एक कार्यक्रम था। उमस भरी गर्मी में मंच से जो व्यक्ति नेपाली में लगातार बोले जा रहा था, पता चला कि वो नेपाल के भूतपूर्व विदेशमंत्री हैं। हॉल में कोई ताम-झामकोई डेकोरम नहीं था। भारत में एक बार जो मंत्री बन गया, वो मरते-मरते अपने भीतर मंत्री वाली शक्ति को टटोलते रहता है। हर पहर सुरक्षा वगैरह चाक-चौबंद। रसूख बरकरार रहता है। संन्यास लेने के बाद भी लोग मंत्रीजी ही बुलाते हैं। इस लिहाज से देखें तो राज्य सभा सांसद प्रेमचंद गुप्ता ने तो सिर्फ़ पद ही खोया है, राजनीति में तो वो बरकरार है। एक समय वो कॉरपोरेट मामलों के कैबिनेट मंत्री थे। वर्षों से लालू प्रसाद (यादव) के काफ़ी करीब रहे हैं। प्रेमचंद गुप्ता के दो बेटे -मयूर गुप्ता और गौरव गु्प्ता- व्यवसायी हैं। इन दोनों में हालांकि गौरव गुप्ता को ज़्यादा तेज माना जाता है, लेकिन यहां उनकी प्रतिभा का हम तुलनात्मक अध्ययन करने नहीं जा रहे। कोलगेट से इनका क्या ताल्लुक है, इसपर बात करेंगे लेकिन उससे पहले एक और सज्जन से आपका परिचय करा देते हैं।  
नाम है डेंजल कीलोर। भूतपूर्व एयर मार्शल डेंजल कीलोर। युद्ध में डटकर लड़ने वाला - जैसा कि अमूमन हर फौजी होता है! (अन्ना हज़ारे बुरा न मानें)। थर्मामीटर से शूरता, वीरता और पराक्रम वगैरह को मापने पर बढ़िया नतीजे पर पहुंचा जा सकता है क्योंकि पाकिस्तान के साथ युद्ध में उन्होंने खूब वाहवाही लूटी थी। 1965 के युद्ध में। पदोन्नति भी मिली थी। आज भी अतीत में गोता लगाए रखते हैं। हमने दुश्मनों को ऐसे धूल चटाई तो वैसे धूल चटाई! बताया जाता है कि अपनी बातचीत में बरबस ही युद्ध की तान छेड़ने में उनको महारत हासिल है। हालांकि ये फौजदोष बेहद सामान्य है, फिर भी इसके जरिए अपने व्यक्तित्व में भूतपूर्व के एहसास को वे ताजेपन से ढंकना चाहते हैं। मंत्रीजी की तरह ही। 
कॉरपोरेट मामलों के पूर्व मंत्री प्रेमचंद गुप्ता

17 जून 2009 को कोयला मंत्रालय ने महाराष्ट्र का दहेगांव माकरधोकरा-IV कोयला खदान संयुक्त रूप से तीन कंपनियों को आवंटित करने की घोषणा की। गुजरात अंबुजा सीमेंट, लाफ़ार्ज इंडिया और आईएसटी स्टील एंड पावर लिमिटेड। इस खदान की कुल क्षमता 4.88करोड़ टन है। इसका 53 फ़ीसदी हिस्सा आईएसटी स्टील एंड पावर लिमिटेड की झोली में आया। मयूर गुप्ता और गौरव गुप्ता इसके मालिक हैं। गौरव गुप्ता ही इसके निदेशक हैं और डेंजल कीलोर साहब अध्यक्ष। 
 
जोहरा चटर्जी की अध्यक्षता वाला अंतर-मंत्रालयी समूह ने पहले चरण के अंत में जिन दो खदानों (इनको मिलाकर अब तक कुल 13 खदानों का अवंटन रद्द हुआ है) का आवंटन रद्द करने की सिफ़ारिश की उनमें एक ब्लॉक दहेगांव माकरधोकरा-IV भी है। दूसरा खदान छत्तीसगढ़ का भास्करपारा है जिसे 21 नवंबर 2008 को संयुक्त रूप से ग्रासिम इंडस्ट्रीज (मिस्टर इंडिया जैसे सौंदर्य प्रतियोगिता के प्रायोजक बिड़ला समूह की कंपनी) और मुकेश भंडारी की कंपनी इलेक्ट्रोथर्म (इंडिया) लिमिटेड को दिया गया था। इसकी क्षमता 1.86 करोड़ टन है। इसमें इलेक्ट्रोथर्म की हिस्सेदारी 52 फीसदी और ग्रासिम इंडस्ट्रीज की 48 फ़ीसदी है। भास्करपारा के इस खदान में तो आदित्य मंगलम बिड़ला का पैसा लगा ही है लेकिन गुप्ता और डेंजल कीलोर को जो खदान आवंटित हुआ उसमें भी बिड़ला की सेंधमारी है क्योंकि लाफार्ज सीमेंट (फ्रांसीसी जोड़ीदार के साथ) बिड़ला का ही उत्पाद है। कोयला खदान आवंटन के समय बिड़ला ने जान-बूझकर अलग-अलग कंपनियों से दांव खेला, ताकि ज़्यादा खदान हासिल कर सके। हिंडालको तो खैर है ही। आप कहिए कि दहेगांव माकरधोकरा-IV खदान में नेता, फौजी और कॉरपोरेट तीनों की जुगलबंदी थी।
 
आरोप ये है कि खदान हासिल करने के लिए कंपनियों ने मंत्रालय को ग़लत जानकारी देकर गुमराह किया। कहा ये भी जा रहा है कि इसके लिए मंत्री जी का व्यक्तित्व भी बड़ा सहारा बना। हालांकि प्रेमचंद गुप्ता इससे लगातार इनकार कर रहे हैं। लेकिन कोयला खदान मामले में राजनीतिक टिप्पणियों पर नज़र दौड़ाएं तो आप देखेंगे कि कांग्रेस पर उठने वाली उंगली के बचाव में जितना कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के गले से आवाज़ नहीं निकली होगी उससे ज़्यादा ज़ोर से लालू प्रसाद (यादव) ने चीख़ निकाली है। यूपीए सरकार को देने वाले सिर्फ़ राजनीतिक समर्थन का मामला भर नहीं है ये!जब प्रेमचंद गुप्ता का नाम सार्वजनिक हुआ तो लालूजी थोड़ा मलिन पड़े। राजनीतिक दबाव के चलते प्रेमचंद बाबू के बेटे का खदान हो या फिर पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय के मानक निदेशक पद पर रहने वाले भाई सुधीर कुमार सहाय का खदान, सबको रद्द करना राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भी ज़रूरी था, लिहाजा सरकार और ख़ास तौर पर कांग्रेस यह कोशिश कर रही है कि विपक्ष को वो ऐसा मौका न दें कि सीधे-सीधे राजनीतिक परिवारवाद वाले मामले पर सरकार को वो लंबी दूरी तक घसीट ले जाए। सीबीआई ने भी जायसवाल समूह (अभिजीत समूह की सिस्टर कंपनी) के घसीटे में अरविंद और मनोज जायसवाल सहित कांग्रेस सांसद विजय दर्डा (लोकमत मीडिया समूह के मालिक) के बेटे देवेंद्र दर्डा पर पकड़ बनाई है। यह जांच से ज़्यादा राजनीतिक मजबूरी भी है। वरना सीबीआई की कार्यशैली तो सब जानते ही हैं।
 
लेकिन नेताओं और कॉरपोरेट के भ्रष्ट होने पर लगभग समहत हो चुके मध्यवर्ग को एयर मार्शल वाला तथ्य थोड़ा परेशान कर सकता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देशभक्ति और ईमानदारी के शब्दकोश में फौजी शब्द बेहद महत्वपू्र्ण है। यह ट्रेंड दुनिया भर में लगभग एक जैसा है। अभी हाल ही में अपने चुनाव प्रचार में बराक ओबामा ने देशभक्ति साबित करने के लिए यह जोर देकर कहा कि उनके दादा अमेरिकी सेना में रह चुके हैं। फौज की पात्रता पूरी नहीं करने वाले लोग एनसीसी वगैरह से ही काम चला लेते हैं। अन्ना हज़ारे ने अपने साल भर वैलिडिटी वाले आंदोलन में कई-कई बार अपनी फौजी पृष्ठभूमि और अविवाहित बने रहने की ‘ख़ासियत पर ज़ोर दिया। लेकिन भारत में यह सर्वे का एक मजेदार विषय है कि सेना से रिटायर होने वाले अधिकारी बाद के दिनों में करते क्या हैं? निजी सुरक्षा एजेंसी खोलने से लेकर ट्रांसपोर्ट के धंधे में उतरने और खनन के काम में बड़ी संख्या में इन भूतपूर्व फौजियों’ का दख़ल है। रियायती दरों पर कई पट्टे इन्हें हासिल होते हैं। कई धंधों में इन्हें ख़ास सहूलियत दी जाती है, लिहाजा पैसे वाली पार्टी के साथ सांठ-गांठकर कर ये गेम करते हैं। फ़ायदा दोनों का होता है। सामान्य ज्ञान के इस प्रश्न का उत्तर सब जानते हैं कि सफ़ेद सोना कपास को और काला सोना कोयला को कहते हैं।
मोर्चे पर जाते हुए डेंजल कीलोर की जवानी की तस्वीर
 
फ़ौजियों की गड़बड़ी, धोखाधड़ी को अमूमन ढंक दिया जाता है। मोराल डाउन होने जैसी भविष्यवाणियों के तले। संयोग देखिए कि इस कोलगेट में डेंजल कीलोर साहब का नाम सामने आया (टीवी चैनलों, अख़बारों में मत ढूंढिए,नहीं मिलेगा) और सबने देखा कि संसद संत्र में गतिरोध पैदा करने के साथ-साथ मनमोहन सिंह के इस्तीफ़े पर बीजेपी किस तरह अड़ी। इससे पहले 2जी को लेकर बीजेपी ने लगातार चिदंबरम का बहिष्कार किया, लेकिन दशक भर पहले फ़ौजियों के ताबूत घोटाला (कोफिनगेट) मामले में जब तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस का नाम आया था तो कांग्रेस ने संसद नहीं चलने दी थी और दो साल तक फ़र्नांडीस का बहिष्कार किया था। बहिष्कार-बहिष्कार बराबर। संसद ठप्प-संसद ठप्प बराबर। कोयला खदान तब भी बंट रहे थे, अब भी बंट रहे हैं।  
 
लोहा, स्टील, सीमेंट और सबसे ज़्यादा बिजली बनाने के नाम पर जो कोयला खदान हासिल किए गए उनमें से ज़्यादातर खदानों का कंपनियों ने इस्तेमाल नहीं किया। चूंकि जिन उद्देश्यों के लिए खदान लिए जा रहे थे, उनमें कई दिक्कतें थीं। मसलन, पावर प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए कंपनी को मध्यप्रदेश में ज़मीन मिली ही नहीं है लेकिन महाराष्ट्र का कोयला खदान कंपनी ने अपने नाम करवा लिया। बाद में पता चला कि मध्यप्रदेश में कंपनी को पर्यावरण लायसेंस नहीं मिला। अब खदान पड़ा हुआ है। फ़ौजी,कॉरपोरेट और नेताजी को सस्ता खदान मिल गया। कभी-न-कभी खोद ही डालेंगे। दशक भर पहले लक्ष्य बनाया गया था कि सन 2012 तक हर गांव में बिजली पहुंच जाएगी, लेकिन कुछ हफ़्ते पहले देश का तीन बिजली ग्रिड फेल होने के बाद पूरा उत्तरी और पूर्वी हिस्सा अंधेरे में डूब गया था। न बिजली, न सीमेंट का उत्पादन, सिर्फ़ कोयला खदान का हुआ आवंटन  

Monday, September 24, 2012

अन्ना, सपनों को मत मरने दो..


आशुतोष
Monday , September 24, 2012 at 08 : 34

अन्ना, सपनों को मत मरने दो


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सपने मरते नहीं। सपने मरा नहीं करते। उम्मीदों की सांस पर सवार सपने अपने लिये जीवन तलाश लेते हैं। पिछले दिनों उम्मीदों ने अन्ना की आँखो में सपने खोज लिये थे। लोगों ने उनमें सपने देखना शुरू कर दिया था। सपना भ्रष्टाचार से छुटकारा पाने का। सपना नये भारत का। पर अब लगता है कि उम्मीदों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया है। सपने मुरझाने लगे हैं। सपनों को नींद आने लगी है। अन्ना ने अपने शिष्य अरविंद केजरीवाल से पूरी तरह से किनारा करने का फैसला कर लिया है। अरविंद को अपना नाम औऱ चेहरे के इस्तेमाल की भी इजाजत नहीं देंगे। न ही वो अरविंद को अपने मंच पर आने देंगे। अरविंद का अपराध इतना है कि उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का तरीका बदल दिया है। अब आंदोलन की जगह राजनीतिक दल बनाएंगे। चुनाव में शिरकत करेंगे। अन्ना को ये बात पसंद नहीं आई।
अन्ना ये कहते कि वो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे, वो राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे, वो राजनीतिक दल के लिये प्रचार नहीं करेंगे तो बात समझ में आती लेकिन वो गुस्से में ये कह गये कि उनके और अरविंद के रास्ते अलग हो गये हैं। बात यहां पर भी रुक सकती थी। लेकिन कांस्टीट्यूशन क्लब जहां राजनीतिक दल बनाने पर आखिरी फैसला होना था, वो वहां से निकले और सीधे मिलने गये बाबा रामदेव से। आरएसएस के निहायत करीबी व्यापारी ने ये मुलाकात करायी। अंधेरे में ये मुलाकात हुई। खबर ये भी है कि जब से अरविंद और उनकी टीम ने राजनीतिक दल बनाने की मंशा जाहिर की है तब से संघ परिवार में खलबली मची हुयी है। बीजेपी परेशान है। उसे लगता है कि भ्रष्टाचार विरोधी जो माहौल बना है उसका फायदा उसे होगा लेकिन अगर अन्ना और उनकी टीम चुनाव में उतरी तो शहरी इलाकों में वो बीजेपी का वोट काटेगी और नुकसान बीजेपी को होगा।
बाबा रामदेव भी राजनीतिक दल बनाने का बहाना ढूंढ रहे थे। इसलिये अरविंद ने जब 26 जुलाई को अनशन का ऐलान किया तो बाबा किसी भी हालत में इसे टालने पर तुल गये। उन्होंने गुपचुप तरीके से अन्ना से मुलाकात कर उन्हें समझाने की कोशिश की वो इस अनशन को या तो टाल दें या फिर वो खुद अनशन पर न बैठें। और बाद में 9 अगस्त को रामलीला मैदान में उनके साथ अन्ना भी अनशन करें। किरण बेदी ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किरण की शह पर अन्ना और बाबा के बीच एक समझ बनी। किरण अरविंद की राय से सहमत नहीं थीं कि कांग्रेस समेत बीजेपी का भी विरोध किया जाये। वो कांग्रेस विरोध कर बीजेपी की मदद करना चाहती हैं। अरविंद इस बात के लिये तैयार नहीं थे। अन्ना और अरविंद के बीच 'दूरी' और अन्ना और बाबा रामदेव के बीच 'पुल' का काम किरण ने किया। और आखिर में अन्ना ने उस अरविंद का साथ छोड़ दिया जिसे कभी वो भारत का आदर्श युवा कहा करते थे और उन रामदेव से रात के अंधेरे में मिलने लगे जिन्हें उन्होंने नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद त्याग दिया था। और रात के अंधेरे में जब वो गोल्फ लिंक मे पकड़े गये तो उनका चेहरा फक था जैसे चोरी पकड़ी गयी और अगले दिन वो उस मीडिया पर चीख पड़े जिसका वो अबतक गुणगान करते आये थे।
सवाल इस बात का नहीं है कि अन्ना ने ऐसा क्यों किया? सवाल इस बात का है कि उन सपनों का क्या होगा जो लोगों ने अन्ना की ऑखों में देखा था? क्या ये सपने रामदेव के साथ पूरे होंगे? क्या इन सपनों को वो आरएसएस की मदद से पूरा करेंगे? किसी भी आंदोलन की कामयाबी उसकी 'नैसर्गिकता' पर निर्भर करती है। लोगों के 'यकीन' पर निर्भर करती है। देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इसलिए परवान चढ़ा कि लोगों को अन्ना और उनकी टीम पर यकीन था। ये यकीन था कि अन्ना और उनकी टीम राजनीतिक दलों और नेताओं की तरह उनके यकीन का सौदा नहीं करेगी। ये ईमानदार लोग हैं, सौदेबाज नहीं। ये देश 'भक्तिवादी' देश है। लोग आंख बंदकर यकीन करते हैं। लेकिन ये यकीन हर आदमी पर नहीं होता है। वो ईश्वर को मानता है और उसके सामने अपने को पूरी तरह से समर्पित कर देता है। धर्म से बाहर जब वो निकलता है तो जिस भी शख्स में उसे ईश्वर के दर्शन होते हैं या जो ईश्वर जैसा लगता है उस पर भी वो आंख बंद कर यकीन कर लेता है और अपना सबकुछ उसको समर्पित कर देता है। आजादी के पहले उसने गांधी जी पर यकीन किया। आजादी के बाद काफी हद तक पंडित नेहरू और जय प्रकाश नारायण यानी जेपी में भी उसे वही ईश्वर दिखाई दिये। गांधी जी के नेतृत्व में उसने अंग्रेजों को उखाड़ फेंका। जेपी जैसे बुजुर्ग में इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेता को हराने की शक्ति उसी यकीन की देन थी। यहां तक कि बाद में वी पी सिंह में भी लोगों ने महात्मा देख लिया था।
4 अप्रैल 2011 के पहले अन्ना को महाराष्ट्र के बाहर लोग जानते नहीं थे। लेकिन एक बुजुर्ग ने जब सरकार को ललकारा और उस बुजुर्ग में लोगों को निस्वार्थ प्रेम दिखा तो अचानक न जाने कहां से लोग उसके प्रेम में उमड़े चले आये। देश का विमर्श बदल गया। बिना एक भी पत्थर चले आंदोलन खड़ा हो गया। अन्ना रातोंरात राष्ट्र नायक बन गये। 'अन्ना' एक नाम नहीं, एक 'यकीन' बन गया। लोगों को लगा कि 'बदलाव' आ सकता है। अफसोस अन्ना ने उस यकीन को तोड़ दिया। जो अन्ना सरकारों से पारदर्शिता की दुहाई देते थे वो रात के अंधेरे में बचते फिरे, बाबा रामदेव में भविष्य तलाशे और आरएसएस जिसका सहारा बने नायक कैसे हो सकता है? लोग तो पूछेंगे कि ये वो अन्ना तो नहीं जिसे लोगों ने 4 अप्रैल को जंतर मंतर पर या फिर 16 अगस्त को तिहाड़ जेल में देखा था? अन्ना ने अरविंद का साथ क्यों छो़ड़ा ये मुद्दा है ही नहीं। असल मुद्दा ये है कि रामदेव के प्यारे कैसे हो गये? क्या दिल्ली आते ही अन्ना को भी राजनीति ने अपना शिकार बना लिया? या फिर अन्ना भी एक आम इंसान निकले? भारत एक 'भावनावादी' समाज है। ये जल्दी किसी को दिल देता नहीं है और अगर देता है तो 'अधूरेपन' से नहीं देता, अपने 'पूरेपन' से देता है। वो सवाल नहीं करता लेकिन जब सवाल करता है तो चिंदियां उड़ा देता है। अन्ना मेरी इतनी ही गुजारिश है कि बड़ी मुश्किल से उम्मीदे पलती है, बड़ी मुश्किल से सपने जवान होते हैं इन उम्मीदों को मत मरने दो?


Thursday, September 20, 2012


कोयला के बदले पावर प्लांट मिले तो क्या दिक्कत!


-दिलीप खान

खुदरा क्षेत्र में एफ़डीआई, डीज़ल में मूल्यवृद्धि और रियायती दर पर रसोई गैस सिलेंडर हासिल करने का कोटा तय करने के बीच कोयला का मामला दब गया सा लगता है। मुद्दे आधारित राजनीति में नया मुद्दा आते ही पुराना मुद्दा किसी झाड़ी तले ढंक जाता है। लेकिन कोयला ब्लॉक की समीक्षा कर रही अंतर-मंत्रालयी समूह में जिस तरह की पड़ताल हो रही है और जैसे नतीजे सामने आ रहे हैं वो कई दफ़ा चौंकाते भी हैं। जिन 58 कंपनियों को कारण बताओ नोटिस जारी हुए थे, उनमें से महज 29 की जांच हो पाई है और इनमें से आईएमजी ने सिर्फ़ 8 कंपनियों के आवंटन रद्द करने की कोयला मंत्रालय से सिफ़ारिश की है। शुरुआत में 142 में से 58 को जांच पड़ताल के बाद सिर्फ़ इस आधार पर कारण बताओ नोटिस भेजा गया था कि इन सबकी प्रगति काफ़ी ढीली थी।

आईएमजी ने जिन 8 कंपनियों के आवंटन रद्द करने की सिफ़ारिश की
ब्लॉक का नाम
राज्य
कंपनी का नाम
क्षमता
आवंटन वर्ष
चिन्होरा
महाराष्ट्र
फ़ील्ड माइनिंग एंड इस्पात
2 करोड़ टन
2003
बरोरा
महाराष्ट्र
फ़ील्ड माइनिंग एंड इस्पात
1.8 करोड़ टन
2003
लालगढ़ उत्तरी
झारखंड
डोमको स्मोकलेस फ्यूल्स
3 करोड़ टन
2005
ब्रह्मडीह
झारखंड
कैस्ट्रॉन माइनिंग
20 लाख टन
1996
रावणवाड़ा उत्तरी कोयला ब्लॉक
मध्य प्रदेश
एसकेएस इस्पात एंड पावर लिमिटेड

2006
नई पात्रापाड़ा कोयला ब्लॉक
उड़ीसा
भूषण स्टील लिमिटेड एंड अदर्स
31.6 करोड़ टन
2006
गौरंगडीह एबीसी कोयला ब्लॉक
प. बंगाल
हिमाचल ईएमटीए पावर लिमिटेड और जेएसडब्लू स्टील लिमिटेड
6.15 करोड़ टन
2009
मचेरकुंडा ब्लॉक
झारखंड
बिहार स्पॉन्ज आयरन एंड स्टील

2008

आईएमजी की अगुवाई कर रही अतिरिक्त सचिव ज़ोहरा चटर्जी 21 तारीख़ को अमेरिका दौरे पर जा रही हैं और ऐसे में ये साफ़ लग रहा है मंगलवार को मचेरकुंडा ब्लॉक रद्द करने का फ़ैसला इस चरण का लगभग आख़िरी फ़ैसला है। निर्भीक और निष्पक्ष आईएमजी रिलायंस, टाटा, आर्सेलर-मित्तल और हिंडालको (बिड़ला समूह की कंपनी) से सवाल-जवाब करने के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि इनके खदानों को बरकरार रखा जाय। सारे बड़े घरानों के ब्लॉक बच गए। अंबानी, टाटा, मित्तल, बिड़ला। सबके। राजनीतिक गलियारे में जिन नेताओं के घर में कोयले का धुंआ उठ रहा था, उनपर पानी गिराया गया ताकि धुंए का गुबार शांत हो जाए। जाहिर है इसके लिए कुछ आवंटन रद्द भी करने पड़े। मिसाल के लिए पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय की चारों ओर थू-थू हो रही थी कि उन्होंने यह जानकारी छुपाते हुए प्रधानमंत्री (तत्कालीन कोयला मंत्री) मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर एसकेएस इस्पात एंड पावर लिमिटेड को खदान देने की सिफ़ारिश की थी कि उनका भाई सुधीर कुमार सहाय इस कंपनी का मानद निदेशक है। मंत्रालय ने अभूतपूर्व तेजी दिखाते हुए इस ब्लॉक को हरी झंडी दी थी। इसी तरह जायसवाल समूह के नाम पर घिरे मौजूदा कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल भी मंत्रालय से इतर कुछ कार्रवाई के चलते अपने दाग को मलिन होते देख रहे हैं। अभिजीत समूह की तीन कंपनियों जेएएस इंफ्रास्ट्रक्चर, जेएलडी यवतमाल और एएमआर आयरन एंड स्टील के मालिक भाइयों अरविंद जायसवाल और मनोज जायसवाल को सीबीआई ने पूछताछ की। इसी कंपनी के साथ कांग्रेस सांसद विजय दर्डा का नाम जुड़ा है। सीबीआई ने आरोप लगाया है कि इन दोनों जायसवाल भाइयों ने विजय दर्डा को 26 फ़ीसदी हिस्सेदारी इस आधार पर देने की पेशकश की थी कि वो मंत्रालय से हरी झंडी दिलवाने में जायसवाल की मदद करें।

लेकिन खेल का मैदान काफ़ी चौड़ा है। इधर कोयला मंत्रालय इन कंपनियों के आवंटन रद्द कर रही है और उधर ऊर्जा मंत्री वीरप्पा मोइली इन कंपनियों को भविष्य में पावर प्लांट देने की बात कहकर ये यक़ीन दिला रहे हैं कि देश में कंपनियों द्वारा बरती गई अनियमितताओं को जुर्म के खांचे में रखने की मांग करने वाले लोग निरा बेवकूफ़ है। कंपनियों को किस तरह का घाटा होगा? मान लीजिए किसी सुबोधकांत सहाय के भाई को कोयला ब्लॉक के बदले पावर प्रोजेक्ट मिल जाए तो इसमें उन्हें क्या हर्ज हो सकता है? बड़ी बात यह कि राजनीतिक सफ़ेदी बरकरार रहते हुए ऐसा हो जाए तो क्यों नहीं कोयला खदान रद्द करावाए कोई? 10 ब्लॉकों के लिए अब तक 8 कंपनियों को बैंक गारंटी जमा करने या बैंक गारंटी रद्द करने की भी आईएमजी ने सिफ़ारिश की है।

कांग्रेस महकमे में आईएमजी की सिफ़ारिश को शो-रूम के बाहर सजे-धजे मॉडल्स की तरह पेश किया जा रहा है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कहा कि आईएमजी के जरिए सरकार ही कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में पारदर्शिता बरतने की पहलकदमी कर रही है। उनके मुताबिक सरकार हमेशा धांधली के ख़िलाफ़ रही है और इसीलिए कंपनियों के आवंटन रद्द हो रहे हैं। लेकिन शर्मा ने यह नहीं बताया कि उनकीईमानदार सरकार ने कैग की रिपोर्ट से पहले यह कदम क्यों नहीं उठाया? पहले दिन यानी 13 सितंबर को आईएमजी ने जिन चार कंपनियों को रद्द करने (टेबल में ऊपर की चार कंपनियां) की सिफ़ारिश की उनमें से सिर्फ़ एक कंपनी को यूपीए के शासनकाल में ब्लॉक आवंटित किया गया और बाकी तीन कंपनियां एनडीए के जमाने वाली थीं। यहां दो बातें साफ़ होती हैं। पहली, जो बीजेपी 17 अगस्त को संसद में कैग की रिपोर्ट पेश होने के बाद पूरे मानसून सत्र में सदन के भीतर नारेबाजी करके गला ख़राब करती रही, उसके जमाने में भी ऐसे ही कोयला खदान बांटे जाते रहे हैं। जाहिर है बीजेपी का मौजूदा विरोध किसी कॉरपोरेट लूट के ख़िलाफ़ न होकर यूपीए सरकार के साथ लगभग नत्थी हो चले घोटालों की श्रृंखला को लपककर राजनीतिक लाभ लूटने की है। दूसरी, आईएमजी ने पहले दिन ज़्यादातर एनडीए के जमाने में आवंटित हुए  कोयला खदानों को रद्द करने की सिफ़ारिश कर यूपीए सरकार को ये मौका दिया कि अब वो डीज़ल, रसोई गैस और एफ़डीआई पर खेल खेल सकती है क्योंकि कोयला पर एनडीए को आईना दिखाने वाली रिपोर्ट सामने है। यह महज संयोग नहीं है कि ठीक उसी दिन (13 सितंबर को) यूपीए ने डीज़ल और रसोई गैस वाला फ़ैसला लिया और अगले दिन, 14 सितंबर (जब हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवी हिंदी दिवस मनाने में मशगूल थे) को खुदरा बाज़ार में 51 फ़ीसदी एफडीआई का।

सवाल अपनी जगह कायम है। कॉरपोरेट लूट और इसमें राजनीतिक सहभागिता पर लगाम कसने की कोशिश जिस संरचना के जरिए की जा रही है उसमें पार्टियों के बीच ज़्यादा फर्क नहीं है। भाजपा अथवा कांग्रेस सिर्फ़ विपक्ष में आने पर ही विरोध का स्वर अलापते हैं वरना नीतिगत स्तर पर दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है। इसके कई उदाहरण अतीत में देखे गए हैं। गुजरे साल दिल्ली में कुछ किलोमीटर के अंतर में ही एक जगह भाजपा के लोग आदर्श सोसाइटी में हुए भ्रष्टाचार को लेकर धरने पर बैठे थे तो दूसरी जगह कर्नाटक में येदियुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच उनके इस्तीफ़े की मांग कर रही कांग्रेस बैठी थी। मुद्दे और जगह में पाए जाने वाले अंतर को दरअसल सैद्धांतिक अंतर के तौर पर पेश करने की शातिराना राजनीति की जब परत उघड़ने लगती है तो नया शिगूफ़ा छोड़कर उसे शांत कर दिया जाता है। वरना इस नीति के साथ कोयला आवंटन पहली बार यूपीए ने तो किया नहीं। 1993 से यही नीति अमल में लाई जा रही है। और घोटाला अगर है तो सिर्फ़ 2004 से ही नहीं है...और अगर नहीं है तो फिर कोई सवाल ही नहीं है।  
                                                                        दखल की दुनिया से दिलीप खान का एक लेख..साभार...

Wednesday, September 5, 2012

ब्लॉग माझा..............


नमस्कार मंडळी! ‘ब्लॉग माझा’ स्पर्धेच्या आयोजनाचं हे चौथं वर्ष. पहिली ‘ब्लॉग माझा’ स्पर्धा घेतल्यानंतरच्या काळात मराठी ब्लॉगॉस्फिअरमध्ये खूप गोष्टी घडल्यायत. मराठी ब्लॉगर्सचे आता मेळावे होतायत, फेसबुकवर ग्रुप्स तयार झालेत, दै. लोकसत्ता, दै. प्रहार यांसारख्या वृत्तपत्रांनी ब्लॉग्जची दखल घेण्यासाठी सदरं सुरू केलीयेत. मधल्या काळात फेसबुक आणि ट्विटरमुळे असं वाटलं होतं की ब्लॉगिंग आणि त्यातही
मराठी ब्लॉगिंगचं काय होणार? पण, उलट ही माध्यमं ब्लॉगिंगला पूरकच ठरतायत. मराठी ब्लॉगिंगचं क्षितीजही विस्तारतंय. विविध विषयांना धीटपणे भिडताना मराठी ब्लॉगर्स दिसतायत. फक्त स्फुट लेखनंच नाही तर, कविता, फोटो, कथा असेही प्रकार हाताळले जातायत. अशाच मराठी ब्लॉग्ज आणि ब्लॉगर्सचं कौतुक करतोय ‘एबीपी माझा’ ‘ब्लॉग माझा’ या मराठीतल्या एकमेव ब्लॉगिंग स्पर्धेच्या रूपानं.

नेहमी प्रमाणे याहीवेळी आपले परिक्षक खास आहेत. ज्यात आहेत ‘महाराष्ट्र टाईम्स’चे संपादक श्री. अशोक पानवलकर. श्री. पानवलकर हे मराठी वृत्तपत्रसृष्टीत ज्या मोजक्या पत्रकारांनी न्यू मीडियाविषयी लिहायला सुरूवात केली त्यापैकी एक आहेत. म.टा.मध्ये गाजलेल्या त्यांच्या ‘नेटभेट’या सदराचं पुस्तकही लोकप्रिय झालंय. आपले दुसरे परिक्षक आहेत श्री. दिपक पवार. श्री. पवार हे मराठी भाषेच्या सर्वांगीण विकासासाठी कार्यरत ‘मराठी अभ्यास केंद्रा’चे अध्यक्ष आहेत. शासनाचा सर्व व्यवहार मराठीभाषेमध्ये ऑनलाईन व्हावा, विश्वकोष आणि अन्य शासकीय साहित्य ऑनलाईन यावं या आणि अशा अनेक मुद्यांवर त्यांची संस्था प्रयत्नशील आहे. आपल्या तिस-या परिक्षक आहेत इरावती कर्णिक. इरावती या प्रयोगशील युवा नाटककार तर आहेतच शिवाय विविध दैनिकांमधून त्यांनी केलेल्या लेखनालाही वाचकांचा मोठा प्रतिसाद लाभलाय. 

तेव्हा मंडळी तुमच्यात दडलेल्या लेखक / लेखिकेला केवळ डायरी, फेसबुक किंवा ट्विटर पुरताच मर्यादित ठेवू नका. या स्पर्धेत भाग घ्या. ब्लॉगवर नियमित लिहित असाल तर ठिकच, नाही तर ब्लॉग अपडेट करा. ब्लॉग नसेल तर या स्पर्धेच्या निमित्तानं सुरू करा.

काय म्हणालात? बक्षिसांचं काय? अहो, बक्षीसं आहेतंच की! पहिल्या पाच जणांना विशेष पारितोषकं आणि उर्वरीत दहा जणांचा उत्तेजनार्थ गौरव. आता कोणती बक्षीसं आहेत ते गुपित राहू द्या की! शिवाय, तुमच्या निवडलेल्या ब्लॉगला ‘एबीपी माझा’च्या वेबसाईटवर प्रसिद्धी आणि बक्षीस वितरण समारंभ थेट ‘एबीपी माझा’वर! 

.....तेव्हा मित्र-मैत्रिणींनो येऊ द्या तुमच्यातल्या लेखक-लेखिकेला जगासमोर!
स्पर्धेचं स्वरूप-
१. ब्लॉग मराठीतच लिहिलेला हवा (देवनागरी)
२. अठरा वर्षांपुढील कुणीही या स्पर्धेत सहभागी होऊ शकतं.
३. सर्वोत्तम ब्लॉग निवडण्याचे अधिकार पूर्णत: परिक्षक आणि स्पर्धा संयोजकांकडे असतील. त्याबद्दल कोणतंही स्पष्टीकरण देण्यास परिक्षक, संयोजक, ‘एबीपी माझा’ हे बांधील नसतील. तुमच्या एन्ट्रीज
या तुम्हाला अटी मान्य असल्याच्या निदर्शक असतील.
४. स्पर्धेत सहभागी होण्यासाठी blogmajha@gmail.com या ई-मेल अँड्रेसवर ई-मेल करावा. ज्यात, तुमचं नाव, तुमच्या ब्लॉगची लिंक, पत्ता, व्यवसाय, दूरध्वनी क्र, मोबाईल क्र, व ई-मेल द्यावा. ई-मेल अँड्रेस देणं अनिवार्य आहे. ५. या स्पर्धेसाठी कोणतंही शुल्क नाही.
६. एकावेळी एका स्पर्धकाला फक्त एकच ब्लॉग पाठवता येईल.
७. ब्लॉग पाठवण्याची शेवटची तारीख 30 सप्टेंबर २०१२.
८. स्पर्धेचा निकाल ऑक्टोबर २०१२च्या पहिल्या आठवड्यात जाहीर होईल. तसंच, संबंधित विजेत्यांनाच फक्त ई-मेलद्वारे निकाल कळवला जाईल.
९. यानंतर ‘एबीपी माझा’च्या खास एपिसोडमध्ये विजेत्यांचा सत्कार करण्यात येईल व पुरस्कार वितरण होईल.
१०. स्पर्धेचं आयोजन, नियमावली, अटी, बक्षीसं यासंदर्भात कोणत्याही पूर्वसुचनेशिवाय बदल करण्याचे अधिकार ‘एबीपी माझा’कडे असतील.
११.ब्लॉगमधला कंटेंट स्वत:चाच असावा. जर अन्य स्त्रोतांकडून माहिती घेतली असेल, तर त्यांचा नाममिर्देश करावा. ब्लॉग व त्यातील मजकूर आपलाच असल्याचे सिद्ध करणे, ही स्पर्धकाची जबाबदारी आहे. तुमच्या ब्लॉगद्वारे बौद्धिक संपदा अधिकार, कॉपीराईट कायदा यांचा भंग झाल्यास, उचलेगिरी आढळल्यास त्या ब्लॉगरचा स्पर्धेतला सहभाग व पारितोषिक मिळाल्यास तेही रद्द करण्यात येईल.