
Wednesday, March 30, 2011
भारतीय लोकतंत्र और सिनेमा

Saturday, March 26, 2011
भूमंडलीकरण के तंदूर पर ‘विज्ञापन’ के पकवान
-प्रदीप सिंह |
भूमंडलीकरण के बाद सब कुछ बदल गया है। रहन-सहन, संस्कृति, उद्योग अब तो राजनीति तक की दिशा-दशा को व्यापक पैमाने पर भूमंडलीकरण ने प्रभावित किया है। विज्ञापनों का मायाजाल पूरे समाज को अपने गिरफ्त में लिए हुए है। विज्ञापन का कारोबार आज हजारों करोड़ रुपए का है। मार्केट में टिकना आज विज्ञापन पर आधारित हो गया है।
वस्तु की गुणवत्ता से ज्यादा विज्ञापन की गुणवत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है। आज से कुछ समय पहले तक कोई वस्तु या तो मौलिक होती थी, या कृत्रिम। तब आदमी अपनी खुली आंखों से वस्तु की अच्छाई-बुराई पहचान लेता था। आज तो खुलेआम यह कहा जा रहा है कि, ‘फैशन के इस दौर में गारंटी ना बाबा ना!’ विज्ञापन के इस दौर में अच्छे-बुरे को पहचानने का काम आसान नहीं रहा। जरूरत के अच्छे सामान को खरीदना बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। आज हम उस सामान को भी खरीदने को बेबस हैं जिसकी हमें वास्तव में कोई जरूरत नहीं है।
आज उस सामान का बाजार में बोलबाला रहता है, जिसका विज्ञापन मशहूर सिने तारिका या मॉडल कर रही हो। कंपनियां अपना माल बेचने के लिए उत्पाद आने के पहले से ही प्रचार करने लगती हैं।
कुछ समय पहले तक हर शहर और कस्बे में कुछ मशहूर दुकानें होती थीं। जिसके यहां का सामान लोग आंख मूंद कर खरीदते थे। उन दुकानों की प्रसिद्धि के पीछे सामान की गुणवत्ता, शुद्धता और दुकानदार की ईमानदारी होती थी। आज के समय में व्यापार का यह तरीका पुराना पड़ गया है। विज्ञापनों की दुनिया ने सब कुछ उलट-पलट दिया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अंधाधुंध विज्ञापन के जरिए बाजार पर अपना शिकंजा कस लिया है। किसी जमाने में उनके विज्ञापन अंग्रेजी में होते थे। लेकिन, अब उनके विज्ञापन स्थानीय भाषाओं में होते हैं। उनका प्रचार करने के लिए होते हैं, उस देश के सेलिब्रेटी, फिल्मकार और पढ़े लिखे लोग, जो रातों-रात अमीर बनना चाहते हैं। दृश्य माध्यमों विशेष रूप से टीवी धरावाहिकों और फिल्मों के नायक, नायिका अपनी लोकप्रियता और आकर्षण के बदले विज्ञापन कंपनियों से सौदा कर लेते हैं। कोई जूते का विज्ञापन कर रहा है तो कोई अन्य उपभोक्ता सामान का।
चमकते, दमकते नायक और इठलाती, बलखाती नायिका जब अपने गालों या बालों की खूबसूरती टीवी पर दिखाती हैं और सुंदरता का सारा राज किसी विशेष क्रीम को बताया जाता है तो जनता के दिमाग पर इसका बहुत गहरा असर होता है। लोग उत्पाद के गुण-दोष पर विचार करना भूल जाते हैं।
किसी भी उत्पाद को मार्केट में बेचने के लिए बकायदा तर्क तैयार किए जा रहे हैं। उसके फायदे बताए जा रहे हैं। आम आदमी को उस उत्पाद को खरीदने के लिए हर तरह से ललचाया जा रहा है। विज्ञापन अब एक उद्योग का रूप ले चुका है। उत्पाद का जो मूल्य होता है उसमें बहुत बड़ा भाग विज्ञापन का ही होता है। यह राशि औसतन दस से बीस प्रतिशत तक होती हैं। इस राशि में एक मोटा हिस्सा विज्ञापन करने वाले सितारों या सेलिब्रिटी का होता है।
ये वे लोग हैं जो जनता की नजर में नायक हैं लेकिन वास्तव में वे काम खलनायक का करते हैं। हाल ही में प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण की संस्था ने देश में पीने के पानी और शीतल पेय पर एक अध्ययन किया। यह अध्ययन वैज्ञानिक तौर-तरीके से किया गया। इसमें निष्कर्ष निकला कि देश में इस समय जितनी शीतल पेय कंपनियां हैं, वे शुद्धता के मानकों को पूरा नहीं कर रही हैं। उनके द्वारा बनाया गया पेय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान से लेकर आम जनता तक में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। पूरे देश में उत्तेजना का माहौल बन गया। लेकिन तभी मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी की जाने लगी। पेप्सी और कोक के समर्थन में राजनेता आने से कतरा रहे थे।
ऐसी स्थिति में कुछ दिन के लिए समाजसेवक बने आमिर खान आगे आए। उन्होंने जहरीले पेय को फिर से जनता को पिलाने के लिए कमर कस ली। आमिर खान के बड़े-बड़े होल्डर और पोस्टर से बाजार रंग दिए गए। पेप्सी और कोक का बोतल पीते आमिर खान सारे आरोपों को पी गए। अपने आकर्षण से आम जनता को चमत्कृत करने वाले आमिर खान ने जनता को जहरीला पेय पीने से कोई हानि न होने की गारंटी दे दी। भोली जनता इसे मान भी गई और फिर से पेप्सी कोक के जाल में आ फंसी।
विज्ञापन करने में हमारे ‘महानायक’ अमिताभ बच्चन का बड़ा नाम है। अपनी लोकप्रियता के बदले में उपभोक्ता सामग्री को उसके वास्तविक मूल्य से अधिक में बिकवाकर स्वयं और उस उद्योग के मालिक के लिए वे दोनों हाथ से पैसा कमा रहे हैं। इसी के साथ वे उत्तर प्रदेश की सरकार का स्तुतिगान भी करते रहे। विगत दिनों में उत्तर प्रदेश की सरकार और राजनीति किन लोगों के हाथ में थी, यह सबको पता है।
अमिताभ बच्चन ने प्रदेश सरकार की वंदना में मध्यकालीन दरबारी चारण और भाटों को भी पीछे छोड़ दिया। ‘उत्तर प्रदेश में है दम! क्योंकि, यहां है अपराध सबसे कम।’ यह राजनीति के विज्ञापन का भौंडा नमूना है। शत्रुघन सिन्हा, धर्मेन्द्र , हेमामालिनी, विनोद खन्ना, जयाप्रदा, राजेश खन्ना, जया बच्चन, स्मृति इरानी, दारा सिंह अपनी चलचित्रीय छवि के प्रभाव में राजनीति का विज्ञापन कर रहे हैं। भूमंडलीकरण के शुरुआती दिनों में बड़ी तेजी से भारत की विश्व सुंदरिया चुनी गईं। यह सब भारत के विशाल बाजार को कब्जे में लेने की सोची-समझी चाल थी। ऐसे में हम पाते हैं कि भूमंडीकरण की ज्वाला में विज्ञापन का ही बोलबाला रह गया है।
Thursday, March 17, 2011
Sunday, March 13, 2011
आर्थिक राजधानी की अर्थहीन महिलाओं का समाज.
युवा पत्रकार
महिला सशक्तिकरण के नाम पर देश में कई आंदोलन चल रहें हैं. इन आंदोलनों के बावजूद महिलाओं की स्थिति सोचनेलायक हैं. देहाती महिला के सामने जो प्रश्न हैं वहीँ बड़े-बड़े शहरों में रहनेवाली महिलाओं के सामने हैं भलेही उसमे कुछ अंतर जरुर पाया जायेगा. लेकिन पुरुषवादी मानसिकता के दृष्टिकोण से यह तमाम प्रश्न देहात और शहर दोनों में एकसमान है. दिल्ली में खासकर महिला सुरक्षा पर स्थिति सोचनीय हैं. लेकिन क्या सिर्फ दिल्ली में ही बलात्कार,ब्लेडवार,खून,छेडछाड जैसी अमानवीय वारदातों से महिलाओं में खौफ हैं? नहीं. यह तो हमारी मुंबई में भी अक्सर होनेवाली घटनाएँ हैं. ऐसी घटनाओं से मुंबई अछूती नहीं हैं. देश की आर्थिक राजधानी में बॉलिवुड का मसाला, पर्यटन, राजनीति ,व्यापार से भलेही यह शहर उच्च कोटी की श्रेणी में आता हो किन्तु यह श्रेणी निश्चित ही ऐसे वारदातों से अछूती नहीं है. इस प्रकार की घटनाएँ मुंबई को भी अब रास आने लगी हैं .
हाल में ‘कल्याणी अनाथालय’ में पांच गतिमंद नाबालिक लड़कियों पर अत्याचार का स्केण्डल निदर्शन में आया. इन लड़कियों को समाज के नियमों का या फिर ढंग से जीने का मतलब ही ज्ञात नहीं होता ऐसी मासूमों पर कई दिनों से यह समाजशील कहलानेवाले असामाजिक प्राणी कुकर्म कर रहें थे. यह कोई पहली वारदात नहीं है इससे पहले ऐसी कई दुर्दैवी घटनाएँ को इस शहर में अंजाम मिला हैं. परदेशी पर्यटकों को भी यहाँ पर बक्षा नहीं गया है.
इसी मुंबई में १९७३ में केईएम अस्पताल में घटी एक ऐसी ही घृणास्पद घटना में अरुणा शानबाग अपना आस्तित्व खो बैठी. वो अत्याचारी इस वासनाकांड के सात साल बाद मुक्त हो गया लेकिन अरुणा आज भी मुक्त नहीं हो पायी है. सर्वोच्च न्यायालय में उसके इच्छामृत्यु की मांग ख़ारिज कर फिर एकबार उसको मार दिया है. किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अस्वस्थ करनेवाली यह खबर वाकई सोचनीय हैं. ३७ साल एक ही बेड पर गुजरने वाली अरुणा को न्यायालय उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति का जायजा कर जिनेलायक स्थिति ना होकर भी उसके मरने को ख़ारिज कर दिया. हालाँकि न्यायालय उसके इच्छामृत्यु को स्वीकृति भी दे सकता था लेकिन अस्पताल के तमाम कर्मचारियों के साथ जो उसका रिश्ता बन गया है या फिर अरुणा अपनी प्राथमिक संवेदनाएं उनके सामने जिस प्रकार व्यक्त करती हैं वह सोचनीय हैं.
तीसरी घटना इसी आलीशान शहर की हैं जहाँ पर एक एड्स पीड़ित महिला एड्स बांटते हुये मुंबई में घूम रहीं हैं और उसने अभी तक ३०० से ज्यादा लोगों को अपने सिखंजे में फसाया हैं. पता चला की उक्त महिला के पति को एड्स था वो मर भी गया एक बच्चा पैदा होने के बाद जब इसको पता चला की पति के द्वारा एड्स हुआ है तो उसने इसका गुस्सा तमाम पुरुष जाती पर निकालने की सोच लिया और ना जाने मालिकों से लेकर लिफ्टमैन तक उसने कईयों की जिंदगी बर्बाद कर दी.
किसी भी बीमारी के ठीक नहीं होने और उसके कारण भयानक पीड़ा होने की दशा में स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में लोगों को इच्छाम मृत्युं का अधिकार मिला हुआ है। इस काम को वहां अपराध नहीं माना जाता और इसके लिए डॉक्टरों को सजा नहीं होती। नीदरलैंड में भी डॉक्टरों की मदद से दी गई इस तरह की मृत्यु को वैध माना गया है। अमेरिका के 15 राज्यों में इसे 'असिस्ट सुसाइड' के रूप में मान्यता देने के लिए वोटिंग कराई गई। इसी तरह अल्बानिया और लग्जमबर्ग में भी यूथनेशिया को लीगल माना गया है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी हिस्से में नब्बे के दशक में एक छोटी सी अवधि के लिए इसकी इजाजत थी। यहां और कई देशों में आज भी इसे लेकर बहस जारी है। आखिर इतना सबकुछ होने के बाद भारत में ही यह नियम क्यों नहीं? क्यों बार-बार अरुणा को मारा जा रहा हैं. इसमे गलती किसकी है ? अरुणा की या उस कुकर्मी की जो यह कुकर्म कर न्यायालय के हिसाब से कब से ही मुक्त हो गया, या केईएम के उन तमाम कर्मचारियों की जिनको अभागी अरुणा के प्रति संवेदनाएं हैं ?
आज भी देश में लड़कियोंको जन्म से पहले और बाद में भी मारने प्रमाण सबसे ज्यादा हैं. वैज्ञानिक सुविधाभोगी लोग गर्भ को पहचानकर उसकी जिंदगी वहीँ पर खत्म करते हैं. इससे भी बदतर स्थिति में जो लोग जन्म के बाद लड़की को कहीं पर छोड देते है और वह अनाथ कहलाती है. और फिर वहाँ पर अनाथों के लियें अनाथालय स्थापन किया जाता हैं उसके नाम पर सरकार से,समाज से कई मार्गों से पैसा और पुरस्कार कमाने की होड लग जाती हैं. लेकिन जिसके बलबूते पर आप अपने इस गंदे खेल को अंजाम देते हैं उसीके जीवन के साथ आप खिलवाड़ करतें हैं . उनकी मजबुरीका फायदा ये लोग अपनी वासना को तृप्त करके उठातें हैं. यहाँ जिम्मेवार कौन है ? वो लोग जिन्होंने इस कांड को अंजाम दिया या वह गतिमंद बच्चिया जिन्हें समाज के तौर-तरीके पता नहीं हैं, या फीर खुद समाज जो इन्हें समाज से दूर रखता हैं..
पारिवारिक संघर्षों के तमाम उदाहरण हमारे सामने आतें हैं इसमें मुख्यतः से पति ओर पत्नी केन्द्र में होतें है और इनके बीच सबसे महत्त्वपूर्ण होता हैं विश्वास..जब दोनों में से किसी एक के विश्वास को ठेस पहुँचती हैं तो तो उक्त संघर्ष की शुरूवात होती हैं. खासकर बड़े शहरों में यह उतने ही बड़े पैमाने पर फैलता हैं. पति के गलती की सजा सारें समाज को देने घूम रही औरत शहर के उन वासनांध लोगों के लिए लोलीपॉप बनती गयी और वो अपने काम को सटीक रूप से अंजाम देते चली गयी. शहरों की आबोहवा में घूमनेवाले तमाम लोग अपनी वास्तविक जीवन से तुरंत विचलित होतें गये .. अब यहाँ कौन कसूरवार हैं? वो पति जो इसे अनजाने में एड्स दे गया, या वो औरत जिसने पति के पापों की सजा तमाम पुरुषवर्ग को देनी चाही, या फिर वहीँ शहर के लोग जो वासना के चक्कर में आकर क्षणिक सुख के लिए अपनी जिंदगी दावं पर लगा बैठे.
हालाँकि ऐसी ना जाने कई घटनाएँ देश की इस आर्थिक राजधानी में बार-बार घटती हैं .लेकिन अंततः इसका ज्यादातर शिकार तो महिला ही होती हैं . इन तमाम घटनाओं का अंत समाज की नजर में मृत्यू हैं. चाहे अरुणा शानबाग की इच्छामृत्यु की मांग हो, उन बेबस लड़कियों की लाचार जिंदगी हो, या फिर उस महिला की बदले की आग हो. अंत में एक सवाल की इन स्थितियों का सबका जिम्मेदार कौन ? वो शहर जो आपको जीने की राह तो दिखता हैं और रोज नयें-नयें मृत्यू के अवसर देता हैं..