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Sunday, January 30, 2011

मरने के लियें एक लाख दे रहें हो..जीने के लियें दस हजार दे दो ...


गरीब मजबूर बाप जिसका जवान बेटा साहूकार के सिर्फ दस हजार रु. के कर्ज के कारन फासी लेकर अपनी जान दे देता है और उसके मरने के बाद राजकीय नेता उसे एक लाख रु देने का आश्वासन देता है. तब उसके बाप कि आर्त आवाज निकलती हे ’मरने के लिए एक लाख दे रहे हो जीने के लिए दस हजार दे देते ....’ या फिर नत्था के मरने कि खुशी में मीडिया कि लगी हुयी मंडी और उस मंडी में किसानो का दिखाया हुआ वास्तविक चित्र या अन्य कहीं प्रादेशिक फिल्में जो विदर्भ कि और खासकर तमाम किसानो कि समस्याओं का चित्रण करती है . या फिर रोजमर्रा कि जिंदगी जीते समय पढ़ने में आती किसान आत्महत्या कि कई ख़बरें, या फिर टेलिविज़न पर दिखाई गयी किसानों कि समस्याओं कि ख़बरें या रिपोर्ट या अन्य किसी भी माध्यमों से सुनने में आनेवाली किसान समस्याओ कि ख़बरें...यह सारा विदारक चित्र देखने के बाद हम अंदाजा लगा सकते है कि आज भी विदर्भ में जो किसानों कि स्थिति है वह निश्चित रूप तमाम जनमानस के लिए सोचनीय है.

बहरहाल जब भी हम किसानों कि आत्महत्याओंकी बातें करते है तब हमारे सामने विदर्भ बड़े उदाहरण के रूप में आ जाता है. यह इसीलिए क्यों कि जो यहाँ कि सामाजिक, भौगोलिक ,राजनितिक, आर्थिक, स्थिति है वह उचित रूप से क्रियान्वित नहीं हो पायी इसके अलग अलग कारण हैं . विदर्भ की आर्थिक और सामाजिक रचना में विघटन से ही अत्यंत गडबड स्थिति हैं. यहाँ पर अभी भी जातिव्यवस्था कायम हैं. समाजव्यवस्था में सवर्णों का प्रभुत्व आज भी दिखाई देता हैं . और आर्थिक स्तरों की बात की जाएँ तो आमिरी और गरीबी के बीच उतनीही बड़ी दरार है जीतनी सरकार और किसानों के बीच.. नक्सलवाद गडचिरोली से धीरे धीरे पुरे विदर्भ में फ़ैल रहा है . ऐसे तमाम समस्याओंके बाद भी किसानों की समस्या पर मीडिया ज्यादा फोकस करती हैं क्योंकि पिछले १० सालों में करीब ८० लाख लोगों ने खेती करना छोड दिया हैं और ९ साल में डेढ़ लाख किसानों ने आत्महत्या कि हैं और इस साल करीब १२० किसानों ने.. सरकारी कर्जवितरण कि प्रणाली में आयी त्रुटियों के कारन किसानों कों नीजि साहूकारों से कर्ज लेना पड रहा हैं और उसका जो ब्याजदर है वह भी सोचनेलायक होता हैं .किसानों कि मजबुरीका फायदा अतिरिक्त ब्याजदर लगाकर लूटनेवाली एक संस्था यहाँ पर खुल गयी है. सदोष बिक्री व्यवस्था के कारण किसानों के उत्पाद को उचित दर नहीं मिल पाता हैं. शासकीय अहवाल, आत्महत्याओंका आँकड़ा व प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति में भारी तफावत नजर आती है .सरकार के कानून भी अजब हैं किसानों कि आत्महत्या को भी सरकार अब वर्गीकृत कर रही है जैसे- किसान आत्महत्या, किसान परिवार कि आत्महत्या ,सरकारी मदत को पात्र और अपात्र आत्महत्या .. किसान के मरने के बाद का जो एक लाख रु. का बक्षिस किसानों को दिया जाता हैं उसे लेने के लिया भी उस किसान परिवार को ना जाने कौन कौनसी सिस्टम से गुजरना पड़ता है . अगर सारी दस्तावेजों की पूर्तता वह परिवार करता हैं तो ही वह किसान आत्महत्या की कैटगरी में आ सकता हैं. अगर इस बात को हम ध्यान से समझे तो यह ज्ञात होता हैं की सिर्फ जिन किसानों को सरकारी मदत मिली हैं वहीँ किसान आत्महत्या की श्रेणी में आता है बाकि नहीं .अब यहाँ पर उपर्युक्त आंकड़े भी हमें झुटें लगने लगते हैं .
आखिर मीडिया इन तमाम समस्याओंको कैसे हायलाइट कर रही है. विदर्भ क्षेत्र कि सामाजिक संरचना एवं सामाजिक चेतना को ध्यान में रखते हुयें यहाँ कि जो स्थानीय मीडिया हैं उसका इन तमाम वैदर्भीय समस्याओं को सुलझाने में क्या रोल हैं . खासकर अख़बारों में किसानों के मुद्दों से जुडी ख़बरें, खेती विकासपुरक ख़बरें या रिपोर्ट , आत्महत्या से जुडी ख़बरें या रिपोर्ट आदि का प्रसारण किस तरह से करना चाहिए. अब तक तो यहा कि मीडिया किसानों के प्रति सकारात्मक नजर आती हैं. पी.साईनाथ जैसे लोंग खासकर किसानों कि आत्महत्या के इस गहन प्रश्न पर बार-बार सवाल उठाते नजर आतें हैं. सरकारी योजनाए और उनका किसानों पर पड़नेवालें प्रभावों कि चर्चा यहाँ कि मीडिया बखूबी करती हैं.
इस तमाम चर्चा के बाद भी एक सवाल मन में उठता हैं कि आखिर किसान फिर भी क्यों मरता हैं ? क्या इसके लियें विदर्भ कि नैसर्गिक परिस्थिति जिम्मेवार है, या यहाँ कि राजनितिक स्थिति, या फिर खुद किसान जो एक लाख रु. मिलने कि आशा में खुद को मर रहा हैं !


निलेशराजे बा. झालटे


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