निलेश झालटे
युवा पत्रकार
महिला सशक्तिकरण के नाम पर देश में कई आंदोलन चल रहें हैं. इन आंदोलनों के बावजूद महिलाओं की स्थिति सोचनेलायक हैं. देहाती महिला के सामने जो प्रश्न हैं वहीँ बड़े-बड़े शहरों में रहनेवाली महिलाओं के सामने हैं भलेही उसमे कुछ अंतर जरुर पाया जायेगा. लेकिन पुरुषवादी मानसिकता के दृष्टिकोण से यह तमाम प्रश्न देहात और शहर दोनों में एकसमान है. दिल्ली में खासकर महिला सुरक्षा पर स्थिति सोचनीय हैं. लेकिन क्या सिर्फ दिल्ली में ही बलात्कार,ब्लेडवार,खून,छेडछाड जैसी अमानवीय वारदातों से महिलाओं में खौफ हैं? नहीं. यह तो हमारी मुंबई में भी अक्सर होनेवाली घटनाएँ हैं. ऐसी घटनाओं से मुंबई अछूती नहीं हैं. देश की आर्थिक राजधानी में बॉलिवुड का मसाला, पर्यटन, राजनीति ,व्यापार से भलेही यह शहर उच्च कोटी की श्रेणी में आता हो किन्तु यह श्रेणी निश्चित ही ऐसे वारदातों से अछूती नहीं है. इस प्रकार की घटनाएँ मुंबई को भी अब रास आने लगी हैं .
हाल में ‘कल्याणी अनाथालय’ में पांच गतिमंद नाबालिक लड़कियों पर अत्याचार का स्केण्डल निदर्शन में आया. इन लड़कियों को समाज के नियमों का या फिर ढंग से जीने का मतलब ही ज्ञात नहीं होता ऐसी मासूमों पर कई दिनों से यह समाजशील कहलानेवाले असामाजिक प्राणी कुकर्म कर रहें थे. यह कोई पहली वारदात नहीं है इससे पहले ऐसी कई दुर्दैवी घटनाएँ को इस शहर में अंजाम मिला हैं. परदेशी पर्यटकों को भी यहाँ पर बक्षा नहीं गया है.
इसी मुंबई में १९७३ में केईएम अस्पताल में घटी एक ऐसी ही घृणास्पद घटना में अरुणा शानबाग अपना आस्तित्व खो बैठी. वो अत्याचारी इस वासनाकांड के सात साल बाद मुक्त हो गया लेकिन अरुणा आज भी मुक्त नहीं हो पायी है. सर्वोच्च न्यायालय में उसके इच्छामृत्यु की मांग ख़ारिज कर फिर एकबार उसको मार दिया है. किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अस्वस्थ करनेवाली यह खबर वाकई सोचनीय हैं. ३७ साल एक ही बेड पर गुजरने वाली अरुणा को न्यायालय उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति का जायजा कर जिनेलायक स्थिति ना होकर भी उसके मरने को ख़ारिज कर दिया. हालाँकि न्यायालय उसके इच्छामृत्यु को स्वीकृति भी दे सकता था लेकिन अस्पताल के तमाम कर्मचारियों के साथ जो उसका रिश्ता बन गया है या फिर अरुणा अपनी प्राथमिक संवेदनाएं उनके सामने जिस प्रकार व्यक्त करती हैं वह सोचनीय हैं.
तीसरी घटना इसी आलीशान शहर की हैं जहाँ पर एक एड्स पीड़ित महिला एड्स बांटते हुये मुंबई में घूम रहीं हैं और उसने अभी तक ३०० से ज्यादा लोगों को अपने सिखंजे में फसाया हैं. पता चला की उक्त महिला के पति को एड्स था वो मर भी गया एक बच्चा पैदा होने के बाद जब इसको पता चला की पति के द्वारा एड्स हुआ है तो उसने इसका गुस्सा तमाम पुरुष जाती पर निकालने की सोच लिया और ना जाने मालिकों से लेकर लिफ्टमैन तक उसने कईयों की जिंदगी बर्बाद कर दी.
किसी भी बीमारी के ठीक नहीं होने और उसके कारण भयानक पीड़ा होने की दशा में स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में लोगों को इच्छाम मृत्युं का अधिकार मिला हुआ है। इस काम को वहां अपराध नहीं माना जाता और इसके लिए डॉक्टरों को सजा नहीं होती। नीदरलैंड में भी डॉक्टरों की मदद से दी गई इस तरह की मृत्यु को वैध माना गया है। अमेरिका के 15 राज्यों में इसे 'असिस्ट सुसाइड' के रूप में मान्यता देने के लिए वोटिंग कराई गई। इसी तरह अल्बानिया और लग्जमबर्ग में भी यूथनेशिया को लीगल माना गया है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी हिस्से में नब्बे के दशक में एक छोटी सी अवधि के लिए इसकी इजाजत थी। यहां और कई देशों में आज भी इसे लेकर बहस जारी है। आखिर इतना सबकुछ होने के बाद भारत में ही यह नियम क्यों नहीं? क्यों बार-बार अरुणा को मारा जा रहा हैं. इसमे गलती किसकी है ? अरुणा की या उस कुकर्मी की जो यह कुकर्म कर न्यायालय के हिसाब से कब से ही मुक्त हो गया, या केईएम के उन तमाम कर्मचारियों की जिनको अभागी अरुणा के प्रति संवेदनाएं हैं ?
आज भी देश में लड़कियोंको जन्म से पहले और बाद में भी मारने प्रमाण सबसे ज्यादा हैं. वैज्ञानिक सुविधाभोगी लोग गर्भ को पहचानकर उसकी जिंदगी वहीँ पर खत्म करते हैं. इससे भी बदतर स्थिति में जो लोग जन्म के बाद लड़की को कहीं पर छोड देते है और वह अनाथ कहलाती है. और फिर वहाँ पर अनाथों के लियें अनाथालय स्थापन किया जाता हैं उसके नाम पर सरकार से,समाज से कई मार्गों से पैसा और पुरस्कार कमाने की होड लग जाती हैं. लेकिन जिसके बलबूते पर आप अपने इस गंदे खेल को अंजाम देते हैं उसीके जीवन के साथ आप खिलवाड़ करतें हैं . उनकी मजबुरीका फायदा ये लोग अपनी वासना को तृप्त करके उठातें हैं. यहाँ जिम्मेवार कौन है ? वो लोग जिन्होंने इस कांड को अंजाम दिया या वह गतिमंद बच्चिया जिन्हें समाज के तौर-तरीके पता नहीं हैं, या फीर खुद समाज जो इन्हें समाज से दूर रखता हैं..
पारिवारिक संघर्षों के तमाम उदाहरण हमारे सामने आतें हैं इसमें मुख्यतः से पति ओर पत्नी केन्द्र में होतें है और इनके बीच सबसे महत्त्वपूर्ण होता हैं विश्वास..जब दोनों में से किसी एक के विश्वास को ठेस पहुँचती हैं तो तो उक्त संघर्ष की शुरूवात होती हैं. खासकर बड़े शहरों में यह उतने ही बड़े पैमाने पर फैलता हैं. पति के गलती की सजा सारें समाज को देने घूम रही औरत शहर के उन वासनांध लोगों के लिए लोलीपॉप बनती गयी और वो अपने काम को सटीक रूप से अंजाम देते चली गयी. शहरों की आबोहवा में घूमनेवाले तमाम लोग अपनी वास्तविक जीवन से तुरंत विचलित होतें गये .. अब यहाँ कौन कसूरवार हैं? वो पति जो इसे अनजाने में एड्स दे गया, या वो औरत जिसने पति के पापों की सजा तमाम पुरुषवर्ग को देनी चाही, या फिर वहीँ शहर के लोग जो वासना के चक्कर में आकर क्षणिक सुख के लिए अपनी जिंदगी दावं पर लगा बैठे.
हालाँकि ऐसी ना जाने कई घटनाएँ देश की इस आर्थिक राजधानी में बार-बार घटती हैं .लेकिन अंततः इसका ज्यादातर शिकार तो महिला ही होती हैं . इन तमाम घटनाओं का अंत समाज की नजर में मृत्यू हैं. चाहे अरुणा शानबाग की इच्छामृत्यु की मांग हो, उन बेबस लड़कियों की लाचार जिंदगी हो, या फिर उस महिला की बदले की आग हो. अंत में एक सवाल की इन स्थितियों का सबका जिम्मेदार कौन ? वो शहर जो आपको जीने की राह तो दिखता हैं और रोज नयें-नयें मृत्यू के अवसर देता हैं..
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