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Monday, September 24, 2012

अन्ना, सपनों को मत मरने दो..


आशुतोष
Monday , September 24, 2012 at 08 : 34

अन्ना, सपनों को मत मरने दो


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सपने मरते नहीं। सपने मरा नहीं करते। उम्मीदों की सांस पर सवार सपने अपने लिये जीवन तलाश लेते हैं। पिछले दिनों उम्मीदों ने अन्ना की आँखो में सपने खोज लिये थे। लोगों ने उनमें सपने देखना शुरू कर दिया था। सपना भ्रष्टाचार से छुटकारा पाने का। सपना नये भारत का। पर अब लगता है कि उम्मीदों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया है। सपने मुरझाने लगे हैं। सपनों को नींद आने लगी है। अन्ना ने अपने शिष्य अरविंद केजरीवाल से पूरी तरह से किनारा करने का फैसला कर लिया है। अरविंद को अपना नाम औऱ चेहरे के इस्तेमाल की भी इजाजत नहीं देंगे। न ही वो अरविंद को अपने मंच पर आने देंगे। अरविंद का अपराध इतना है कि उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने का तरीका बदल दिया है। अब आंदोलन की जगह राजनीतिक दल बनाएंगे। चुनाव में शिरकत करेंगे। अन्ना को ये बात पसंद नहीं आई।
अन्ना ये कहते कि वो चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे, वो राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे, वो राजनीतिक दल के लिये प्रचार नहीं करेंगे तो बात समझ में आती लेकिन वो गुस्से में ये कह गये कि उनके और अरविंद के रास्ते अलग हो गये हैं। बात यहां पर भी रुक सकती थी। लेकिन कांस्टीट्यूशन क्लब जहां राजनीतिक दल बनाने पर आखिरी फैसला होना था, वो वहां से निकले और सीधे मिलने गये बाबा रामदेव से। आरएसएस के निहायत करीबी व्यापारी ने ये मुलाकात करायी। अंधेरे में ये मुलाकात हुई। खबर ये भी है कि जब से अरविंद और उनकी टीम ने राजनीतिक दल बनाने की मंशा जाहिर की है तब से संघ परिवार में खलबली मची हुयी है। बीजेपी परेशान है। उसे लगता है कि भ्रष्टाचार विरोधी जो माहौल बना है उसका फायदा उसे होगा लेकिन अगर अन्ना और उनकी टीम चुनाव में उतरी तो शहरी इलाकों में वो बीजेपी का वोट काटेगी और नुकसान बीजेपी को होगा।
बाबा रामदेव भी राजनीतिक दल बनाने का बहाना ढूंढ रहे थे। इसलिये अरविंद ने जब 26 जुलाई को अनशन का ऐलान किया तो बाबा किसी भी हालत में इसे टालने पर तुल गये। उन्होंने गुपचुप तरीके से अन्ना से मुलाकात कर उन्हें समझाने की कोशिश की वो इस अनशन को या तो टाल दें या फिर वो खुद अनशन पर न बैठें। और बाद में 9 अगस्त को रामलीला मैदान में उनके साथ अन्ना भी अनशन करें। किरण बेदी ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किरण की शह पर अन्ना और बाबा के बीच एक समझ बनी। किरण अरविंद की राय से सहमत नहीं थीं कि कांग्रेस समेत बीजेपी का भी विरोध किया जाये। वो कांग्रेस विरोध कर बीजेपी की मदद करना चाहती हैं। अरविंद इस बात के लिये तैयार नहीं थे। अन्ना और अरविंद के बीच 'दूरी' और अन्ना और बाबा रामदेव के बीच 'पुल' का काम किरण ने किया। और आखिर में अन्ना ने उस अरविंद का साथ छोड़ दिया जिसे कभी वो भारत का आदर्श युवा कहा करते थे और उन रामदेव से रात के अंधेरे में मिलने लगे जिन्हें उन्होंने नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद त्याग दिया था। और रात के अंधेरे में जब वो गोल्फ लिंक मे पकड़े गये तो उनका चेहरा फक था जैसे चोरी पकड़ी गयी और अगले दिन वो उस मीडिया पर चीख पड़े जिसका वो अबतक गुणगान करते आये थे।
सवाल इस बात का नहीं है कि अन्ना ने ऐसा क्यों किया? सवाल इस बात का है कि उन सपनों का क्या होगा जो लोगों ने अन्ना की ऑखों में देखा था? क्या ये सपने रामदेव के साथ पूरे होंगे? क्या इन सपनों को वो आरएसएस की मदद से पूरा करेंगे? किसी भी आंदोलन की कामयाबी उसकी 'नैसर्गिकता' पर निर्भर करती है। लोगों के 'यकीन' पर निर्भर करती है। देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इसलिए परवान चढ़ा कि लोगों को अन्ना और उनकी टीम पर यकीन था। ये यकीन था कि अन्ना और उनकी टीम राजनीतिक दलों और नेताओं की तरह उनके यकीन का सौदा नहीं करेगी। ये ईमानदार लोग हैं, सौदेबाज नहीं। ये देश 'भक्तिवादी' देश है। लोग आंख बंदकर यकीन करते हैं। लेकिन ये यकीन हर आदमी पर नहीं होता है। वो ईश्वर को मानता है और उसके सामने अपने को पूरी तरह से समर्पित कर देता है। धर्म से बाहर जब वो निकलता है तो जिस भी शख्स में उसे ईश्वर के दर्शन होते हैं या जो ईश्वर जैसा लगता है उस पर भी वो आंख बंद कर यकीन कर लेता है और अपना सबकुछ उसको समर्पित कर देता है। आजादी के पहले उसने गांधी जी पर यकीन किया। आजादी के बाद काफी हद तक पंडित नेहरू और जय प्रकाश नारायण यानी जेपी में भी उसे वही ईश्वर दिखाई दिये। गांधी जी के नेतृत्व में उसने अंग्रेजों को उखाड़ फेंका। जेपी जैसे बुजुर्ग में इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेता को हराने की शक्ति उसी यकीन की देन थी। यहां तक कि बाद में वी पी सिंह में भी लोगों ने महात्मा देख लिया था।
4 अप्रैल 2011 के पहले अन्ना को महाराष्ट्र के बाहर लोग जानते नहीं थे। लेकिन एक बुजुर्ग ने जब सरकार को ललकारा और उस बुजुर्ग में लोगों को निस्वार्थ प्रेम दिखा तो अचानक न जाने कहां से लोग उसके प्रेम में उमड़े चले आये। देश का विमर्श बदल गया। बिना एक भी पत्थर चले आंदोलन खड़ा हो गया। अन्ना रातोंरात राष्ट्र नायक बन गये। 'अन्ना' एक नाम नहीं, एक 'यकीन' बन गया। लोगों को लगा कि 'बदलाव' आ सकता है। अफसोस अन्ना ने उस यकीन को तोड़ दिया। जो अन्ना सरकारों से पारदर्शिता की दुहाई देते थे वो रात के अंधेरे में बचते फिरे, बाबा रामदेव में भविष्य तलाशे और आरएसएस जिसका सहारा बने नायक कैसे हो सकता है? लोग तो पूछेंगे कि ये वो अन्ना तो नहीं जिसे लोगों ने 4 अप्रैल को जंतर मंतर पर या फिर 16 अगस्त को तिहाड़ जेल में देखा था? अन्ना ने अरविंद का साथ क्यों छो़ड़ा ये मुद्दा है ही नहीं। असल मुद्दा ये है कि रामदेव के प्यारे कैसे हो गये? क्या दिल्ली आते ही अन्ना को भी राजनीति ने अपना शिकार बना लिया? या फिर अन्ना भी एक आम इंसान निकले? भारत एक 'भावनावादी' समाज है। ये जल्दी किसी को दिल देता नहीं है और अगर देता है तो 'अधूरेपन' से नहीं देता, अपने 'पूरेपन' से देता है। वो सवाल नहीं करता लेकिन जब सवाल करता है तो चिंदियां उड़ा देता है। अन्ना मेरी इतनी ही गुजारिश है कि बड़ी मुश्किल से उम्मीदे पलती है, बड़ी मुश्किल से सपने जवान होते हैं इन उम्मीदों को मत मरने दो?


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