मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं आदिवासी समुदाय.
निलेश झालटे (स्वतंत्र पत्रकार) ०९८२२७२१२९२
सन १९९५ की बात हैं महाराष्ट्र की विधान सभा, नागपुर में जब गोवारी जाति के गांव में बसने वाले लोग, कसबों में रहने वाले लोग, जिनकी कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी, वे लाखों की संख्या में एकत्रित होकर आ गए और विधान सभा का घेराव कर लिया. उस समय की महाराष्ट्र सरकार ने उनकी बात तो नहीं मानी, बल्कि उनके ऊपर गोलियां चलवाईं और बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों को मारा गया. उस समय हुई गोलीबारी में करीब १०२ गोवारी जाति के लोग आन्दोलन में शहीद हुए. वहां राम दास गोवारी नाम से मारे गए गोवारी जाति के एक बड़े नेता का एक बहुत बड़ा स्टैच्यू भी बना हुआ है. शहीद स्तम्भ भी वहां जनता ने बनाया, लेकिन इस जाति के लोगों को आज तक न्याय नहीं मिला. यह आदिवासी की एक जमाती का उदाहरण हैं और ऐसे ना जाने कितने जाति-जमाती के आदिवासी विदर्भ में पाए जाते हैं यह तमाम आदिवासी अपनी संस्कृति की साख बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ना जाने कितने भूमिहीन आदिवासी इस क्षेत्र में हैं जो बंधुआ मजदूरी से अपना जीवनयापन करते हैं ये कितनी दुर्दैवी बात हैं की अपने हक के इलाके में भी इन लोगों को इस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा हैं.
“लोग कहते हैं तुम्हें दर्द कहां होता हैं, एक जगह हो तो बता दूं कि – यहां होता हैं” कवि दुष्यंत की यह पंक्तियां शत-प्रतिशत आदिवासियों पर खरी बैठती हैं बाबा साहब अम्बेडकर ने कभी कहा था कि –गूंगे को जंजीरों से बांधकर भी मारोगे तो चीख या कराह सुनाई नहीं देगी तब चाहकर भी उसे बचाने का प्रयास कोई कैसे करेगा? आदिवासी समाज पर जितने भी लेख या साहित्य वरिष्ठ चिंतकों व प्रबुद्ध साहित्यकारों ने लिखे हैं उसका अंतिम निष्कर्ष भी “गूंगो की चीख” को ही प्रदर्शित करता हैं.
आदिवासी समाज पर इमानदारी से काम करनेवाले संगठनों व चिंतकों में भी आदिवासियों की अभिव्यक्ति का अभाव पाया हैं. पुरातन काल से लेकर अब तक का कालखंड आदिवासी संघर्षो और विद्रोहों से भरा पड़ा हैं. पुराणों से लेकर आज के नवीनतम अखबारों या किसी भी प्रकार की मीडिया में उल्लेख मिलता हैं कि आदिवासी सदैव अपनी धर्म, संस्कृति, और जल-जंगल-जमीन के लिए निरंतर संघर्षरत रहें हैं. बहरहाल जब हम महाराष्ट्र के आदिवासियों की बात करते हैं क्योंकि विगत जनगणना के अनुसार इस प्रदेश में ७३.१८ लाख आदिवासी हैं, इस प्रकार से यह मध्यप्रदेश के बाद भारत का दूसरा आदिवासी बाहुल्य राज्य हैं. जिसमें प्रमुखता से गोंड, भील, महादेव कोली, वर्ली, कोकणा, ठाकुर, हल्बा, अंध, कोली मल्हार, कटकरी, कोलाम, कोरकू, गमित आदि आदिवासी जातियों का वास्तव्य हैं.
रामचंद्र गुहा कहते हैं कि अगर इतिहास पर एक नजर डाले तो गत एक सदी से भी ज्यादा समय से मध्य भारत तीन प्रकार की त्रासदी का शिकार हो रहा हैं. एक बात इन सभी त्रासदियों में समान रहीं हैं कि हर बार आदिवासी इसका शिकार होते आ रहें हैं. पहली त्रासदी की शुरुवात अंग्रेजों द्वारा उनके जंगलों पर कब्ज़ा किये जाने से हुई और जो उन्हें दबाए-कुचले जाने के रूप में जारी रहीं. दूसरी त्रासदी की शुरुवात होती हैं देश स्वतंत्रता के बाद जब भारत में चुनावी लोकतंत्र का आगमन होता हैं. एक तरफ सम्पूर्ण देशवासी स्वतंत्रता की खुशी में डूबे होते हैं वहीँ दूसरी और जहां एक बहुत छोटा, शक्तिहीन अल्पसंख्यक तबका होने के नाते उस सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज नहीं पहुँच सकी और हितों की रक्षा के लिए जो भी अर्थपूर्ण प्रावधान किए गए थे, वे सफल नहीं हो सके. आदिवासियों के जीवन की तीसरी त्रासदी माओवादियों के आगमन के साथ शुरू होती हैं, जिनके हथियारबंद संघर्ष और तात्कालिक हिंसा के रास्ते ने आदिवासियों की समस्या सुलझाने की कोई उम्मीद नही छोड़ी.
शायद इसीलिए उस हाशिए पर गए तबके पर (आदिवासियों), उनकी समस्याओं, वास्तविकता, का जायजा लेना मीडिया के लिए जरुरी हैं क्योंकी मीडिया आज मुख्य धारा के समाज का ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्त्व करता दिखाई देता हैं . आज भी आदिवासी अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाए हुए हैं. अपनी संस्कृति को बचाने के लिए वह हमेशा से ही संघर्षरत मिलता हैं. आदिवासी भारत की एक संस्कृति को हमेशा से ही बचाते या चलाते आ रहें हैं. देश में किसी महत्वपूर्ण समारोहों में आदिवासीयों के नृत्य एवं नुक्कडों को प्रस्तुत किया जाता है उसका आनंद लिया जाता हैं लेकिन जब उनके आस्तिव के बारे में चर्चा होती हैं तब सब शांत हो जाते हैं अगर उनको या उनके मुद्दोंको दुर्लक्षित किया जायेगा तो निश्चित पूरी आदिवासी संस्कृति नष्ट होने का खतरा हो सकता हैं.
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