मैं

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Monday, October 1, 2012

बाबा .....



जब भी करते हैं 

बाबा
घर आने की बात 
हेल्लो कहने से ही 
शुरू हो जाता है 
बाबा के गले और हाँथ का कम्पन 
बस इतना कह पाते हैं 
कब आओगी...??
जी धक् सा हो जाता है 
भविष्य की बातें सोचकर 
सोचते हैं 
आखिर कितनी पढाई बाकि है  
मेरी अपनी और 
उस नौकरी की 
जो बार -बार 
साक्षात्कार के बाद 
धकेल देता है 
दरवाजे के उस पार
क्यूँ बाबा_ दादी की मिन्नतें 
काम नहीं करती हैं मेरे लिए 
क्यूँ फेंक दी जाती हूँ 
बार _बार 
पहली क़तार में शामिल होने पार भी 
एक तरफ उनकी अस्वस्थता 
साथ में मेरे लिए 
एक विश्वास 
बिटिया नाम करेगी 
डैम {i.a.s.} बनकर आएगी 
क्या कहूँ उस विश्वास को 
और उस चुनौती को 
जो मैंने खुद तैयार किये हैं 
इनके बीच एक भिडंत 
और दबाव सा महसूस करती हूँ 
रुंधे गले से .........
बस इतना कह पाती हूँ  
बाबा.........,,बस कुछ ही दिनों में ................

-
अर्चना त्रिपाठी  ..

लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय में पीएचडी की शोधार्थी है.

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