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Thursday, October 11, 2012

किसान का दर्द और राजनेताओं का मजा


पुण्य प्रसून बाजपेयी 


मिर्ची-धान छोड़ो, गन्ना उगाओ..ज्यादा पाओ। यह नारा और किसी का नहीं भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी का है। विदर्भ में भंडारा के उमरेड ताल्लुका मेंपूर्ति साखर कारखाना [शुगर फैक्ट्री] लगाने के बाद भाजपा अध्यक्ष का किसानों को खेती से मुनाफा बनाने का यह नया मंत्र है। यानी जो किसान अभी खुले बाजार में मिर्ची और धान बेचकर दो जून की रोटी का जुगाड किसी तरह कर पा रहे हैं, वह गन्ना उगाकर कैसे गडकरी के पूर्ति साखर कारखाने से मजे में दो जून की रोटी पा सकते हैं, इसका खुला प्रचार भंडारा में देखा जा सकता है। और अगर गन्ना ना उगाया तो कैसे किसानों के सामने फसल नष्ट होने का संकट मंडरा सकता है, इसकी चेतावनी भी शुगर फैक्ट्री के कर्मचारी यह कहकर दे रहे हैं कि डैम का सारा पानी तो शुगर फैक्ट्री में जायेगा तो खेती कौन कर पायेगा। फिर डैम का पानी उन्हीं खेतों में जायेगा, जहां गन्ना उपजाया जायेगा। और यह डैम वही गोसीखुर्द परियोजना है, जिसके ठेकेदारों का रुका हुआ पैसा रिलीज कराने के लिये भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने जल संसाधन मंत्री पवन बंसल को पत्र लिखा। यानी जिस गोसीखुर्द परियोजना को लेकर राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह दस्तावेजों में विदर्भ की एक लाख नब्बे हजार हेक्टेयर सूखी जमीन पर सिंचाई की सोच रहे हैं, उस डैम के पानी पर न सिर्फ शुगर फैक्ट्री बल्कि इथिनाल बनाने की फैक्ट्री से लेकर पावर प्रोजेक्ट तक का भार है। और यह तीनों ही भाजपा अध्यक्ष की नयी इंडस्ट्री हैं।

ऐसे में किन खेतों तक डैम का पानी पहुंचेगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल इसलिये भी होता जा रहा है क्योंकि विदर्भ में किसानों से ज्यादा पानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम यानी एमआईडीसी में जाता है और बीते तीन बरस में सिर्फ भंडारा की शुगर फैक्ट्री ही नहीं या पावर प्रोजेक्ट ही नहीं बल्कि विदर्भ में चार अन्य शुगर फैक्ट्री भी भाजपा अध्यक्ष ने ली हैं। जिसे कांग्रेस की सत्ता ने बेचा और भाजपा नेता ने खरीदा। मौदा में बापदेव साखर कारखाना। वर्धा के भू-गांव में साखर कारखाना। नागपुर से सटे सावनेर में राम नरेश गडकरी साखर कारखाना। खास बात यह है कि सभी कारखाने नदियों के किनारे हैं या फिर सिंचाई को लेकर विदर्भ में जो भी परियोजना बन रह हैं, उसके करीब हैं। जिससे पहले उघोगों में पानी जाये। असल सवाल यहीं से खड़ा होता है कि क्या वाकई विदर्भ में खुदकुशी करते किसानों की फिक्र भाजपा अध्यक्ष को है या फिर खुदकुशी करते किसानों के नाम पर परियोजना लगा कर उससे अपना मुनाफा बनाने की होड़ ही नेताओं में ज्यादा है। क्योंकि सिर्फ भाजपा अध्यक्ष ही नहीं बल्कि कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना के नेताओं के 50 से ज्यादा उघोग भी विदर्भ के 12 एमआईडीसी क्षेत्र में हैं। और सभी की जरुरत पानी है। विदर्भ के करीब एक दर्जन पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस भी राजनेताओ के ही पास है और चन्द्रपुर, गढ़चिरोली, वर्धा, भंडारा में देश के टॉपमोस्ट पहले दस उघोगपतियों की इंडस्ट्री चल रही है, जिन्हें पानी की कोई किल्लत नहीं होती है। जबकि किसान की जमीन पर पानी है ही नहीं। खासकर कपास उगाने वाले किसानों की हालत देखें तो परियोजनायें त्रासदी
दिखायी देंगी। क्योंकि 1987 में गोसीखुर्द परियोजना के भूमिपूजन के बाद से सिर्फ कपास के 16 हजार किसानों ने खुदकुशी कर ली।

कपास के लिये ज्यादा पानी चाहिये और 1988 के बाद से जिस तरह हर जिले में एमआईडीसी के लिये पानी जाने लगा उससे किसानो को मिलने वाले पानी में 60 से 80 फिसदी तक की कमी आती चली गई। वहीं विकास परियजनाओ के खेल में एक तरफ हर परियोजना से जुड़ी लाभ की जमीन पर ही उघोग लगने लगे तों दूसरी तरफ किसानों की जमीन के छिनने से लेकर उनके विस्थापन का दर्द खुले तौर पर विदर्भ में उभरा। 122 उघोगों और सिंचाई की छह छोटी बड़ी परियोजनाओं से विदर्भ के करीब एक लाख किसान परिवार विस्थापित हो गये। सिर्फ गोसीखुर्द परियोजना में 200 गांव के बीस हजार से ज्यादा परिवार विस्थापित हुये। ऐसा भी नहीं है कि आज कांग्रेस सत्ता में है तो किसानों की फिक्र कर रही है या फिर जब शिवसेना-बीजेपी की सरकार थी तो उसे किसानों की सुध थी। असल में सत्ता में जो भी जब भी रहा विदर्भ के किसानों की त्रासदी को राहत देने वाली योजनाओं के जरीये लूट का खेल ही खेला। लूट के खेल में किसानो की बलि कैसे चढ़ती चली गई यह महाराष्ट्र में वंसत राव नाईक की हरित क्रांति के नारे से जो शुरु हुई वह भाजपा के महादेवराव शिवणकर से होते हुये राष्ट्रवादी कांग्रेस के अजित पवार तक के दौर में रही। 1995 से 1999 तक शिवणकर विदर्भ में सिंचाई क्रांति की बात करते रहे। और 1999 में जब अजित पवार मंत्री बने तो वह सिंचाई परियोजनाओ की लूट में विकास देखने लगे। जो 2012 में सामने आया। खास बात यह भी है कि 1995-99 के दौरान नीतिन गडकरी सार्वजनिक बांधाकाम मंत्री भी थे और नागपुर के पालक मंत्री भी। और उस दौर में नीतिन गडकरी जनता दरबार लगाते थे। मंत्री रहते हुये उन्होंने आखिरी जनता दरबार 1999 में नागपुर के वंसतराव देशपांडे हॉल में लगाया। जिसमें गोसीखुर्द के विस्थापित किसानों को राहत दिलाने के लिये बनी संघर्ष समिति [गोसीखुर्द प्रकल्पग्रस्त संघर्ष समिति] के सदस्य भी पहुंचे। समिति के अध्यक्ष विलास भोंगाडे ने जब विस्थापितों का सवाल उठाया तब नीतिन गडकरी ने विदर्भ के विकास के लिये परियोजनाओ का जिक्र कर हर किसी को यह कहकर चुप करा दिया कि अगले पांच बरस में विदर्भ की तस्वीर बदल जायेगी। ऐसे में टक्का भर किसानों की सोचने से क्या फायदा।

संयोग है कि वही किसान 13 बरस बाद एक बार फिर जब अपने जीने के हक की मांग करने नागपुर पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि नीतिन गडकरी ही गोसीखुर्द से लेकर हर परियोजाना को पूरा करवाने की लडाई लड़ रहे हैं। लेकिन परियोजनाओ को अंजाम कैसे दिया जा रहा है, यह गोसीखुर्द डैम की योजना से समझा जा सकता है। डैम को बनाने के लिये खड़ी की गई 107 किलोमीटर की दीवार [राइट कैनाल] जो भंडारा के गोसीखुर्द से चन्द्रपुर के आसोलामेंडा तक जाती है, 24 बरस में आधी भी नहीं बनी है। जबकि लेफ्ट कैनाल की 23 किलोमीटर की दीवार [स्लापिंग वाल ] खुद-ब-खुद ढह गयी है। फिर डैम तैयार करते वक्त जिन गांव वालों को बताया गया कि पहले चरण में उनके गांव डूबेंगे। उसकी जगह पहले चरण में ही दूसरे चरण के गांव डूब गये। इसमें पात्री गांव की हालत तो झटके में बदतर हो गई क्योंकि उनका गांव डूबना नहीं था। लेकिन डैम की योजना की गलती निकली। और पात्री गांव डूब गया। फिर पात्री गांव के लोगों के लिये जिस जमीन एक नया गांव तैयार कर उसका नाम साखर गांव रखकर बसाया गया। तीन करोड़ से ज्यादा का खर्च किया गया। बसने के तीन महीने बाद ही वन विभाग ने कहा कि गांव तो जंगल की जमीन पर बसा दिया गया है। आलम यह हो गया कि कि मामला अदालत में चला गया। और अदालत में भी माना कि गांव तो अवैध है। और जमीन वन विभाग की है। उसके बाद इस नये साखर गांव को भी खत्म कर दिया गया। गांव में रह रहे दो हजार लोग बिना जमीन-बिना घर के हो गये। और जब इन्होंने अपने लिये घर और खेती की जमीन की मांग की तो मुबंई सचिवालय से विदर्भ के किसानों के विकास और पुनर्वास की फाइल यह कहकर नागपुर भेजी गई कि इन्हें तो बकायदा घर और तमाम सुविधाओं वाले गांव में शिफ्ट किया जा चुका है। और फाइल पर तत्कालीन उपमुख्यमंत्री अजित पवार के हस्ताक्षर थे। यानी विदर्भ के किसानों की त्रासदी राजनीतिक किस्सागोई की तरह मुंबई में भी कैसे ली जाती है, इसका सच महाराष्ट्र सरकार के दस्तावेज ही बताते हैं। जहां बीते बीस बरस में खुदकुशी करने वाले 18 हजार किसानों के साथ साथ किसानो ने पुनर्वास के लिये खर्च किये गये सवा लाख करोड रुपये का भी जिक्र है और इससे दुगने से ज्यादा करीब तीन लाख करोड़ से ज्यादा की विकास योजनाओं का जिक्र यह लिखकर किया गया है कि विदर्भ के किसानों की हालात बीते तीन बरस में चालीस टक्का तक सुधरे हैं। खास बात यह है कि बीते बीस बरस के दौर में हर तीन बरस बाद की फाइल में विदर्भ के किसानों के हालात सुधारने का दावा क्षेत्र के पालक मंत्री, सिंचाई मंत्री, कृर्षि मंत्री, उघोग मंत्री, उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री तक ने किया है। और छह फाइलों में हर बार बीस से चालीस टक्का [फिसदी] सुधार हुआ है। यानी रफ्तार की धारा को अगर जोड़ दिया जाये तो विदर्भ अब तक स्वर्ग बन जाना चाहिये था क्योंकि बीस बरस में 120 फिसदी से ज्यादा सुधार तो दस्तावेजों में हो चुका है। और सरकारी दस्तावेजों के इस सुधार में अगर विपक्ष के नेता नीतिन गडकरी भी अगर अब कहते है कि उन्हें तो विदर्भ के किसानों की पड़ी है, इसीलिये वह गोसीखुर्द डैम जल्द जल्द चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है।

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